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चौथा अध्याय ] सामाजिक नीतिसिद्ध कर्म ।
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पहले ही कर लेना उचित था। शिष्यरूपसे उसे स्वीकार कर लेने पर उसको स्नेहकी दृष्टिसे देखना, कमसे कम यत्नपूर्वक शिक्षा देना, गुरुका कर्तव्य है। गुरु ऐसा नहीं करेगा तो वह विद्यार्थी शिक्षाका पूर्ण फल नहीं प्राप्त कर सकेगा। गुरु अगर शिष्यको अयोग्य कह कर उसको शिक्षा देनेकी, और उसके उन्नतिसाधनके लिए यत्न करनेकी, जिम्मेदारीसे छुटकारा पा सकता है, तो शिप्यके हितके लिए काम करनेकी उसकी चेष्टा बहुत कुछ शिथिल हो जायगी। अतएव गुरुमें अगर शिष्यके प्रति यत्न और स्नेहका अभाव होता है तो वह उसके कर्तव्यपालनकी बाधा बन जाता है। ___ ऊपर कहा गया है कि गुरु-शिष्यका सम्बन्ध एक बार स्थापित हो जाने पर एकको दूसरेकी योग्यता अयोग्यताका विचार करनेका अधिकार नहीं रहता, तब गुरुकी भक्ति करना ही शिष्यका कर्तव्य गिना जाता है, और शिष्यको यत्नपूर्वक स्नेहके साथ शिक्षा देना गुरुका भी कर्तव्य हो जाता है। अतएव गुरु-शिष्यका सम्बन्ध स्थापित होनेके पहलेही शिष्यको परीक्षापूर्वक गुरुका चुनाव करना चाहिए, और वैसेही गुरुको भी शिष्यका निवाचन करना चाहिए। किन्तु इस तरहका निर्वाचन कठिन है, और अनेक जगह असंभव है। एक तो शिष्य जो है वह बुद्धिके अपरिपक्व और ज्ञानके अल्प होनेके कारण गुरुके निर्वाचनमें समर्थ नहीं हो सकता । अगर कहा जाय कि उसके मा-बाप या अन्य अभिभावक उसके लिए गुरुका निर्वाचन कर दे सकते हैं, तो वर्तमान समयके विद्यालयोंके नियमानुसार वैसा होना संभव नहीं है। छात्र या उसके आभभावक विद्यालयको छाँट सकते हैं, लेकिन वहाँके शिक्षक छाँटनेका उन्हें कोई आधकार नहीं है। छात्र या उसके अभिभावक ऊँचे दर्जेके सुनियमोंसे संचालित विद्यालय छाँट सकते हैं, किन्तु वहाँ उनके मनका गुरु छाँटा जाना असंभव है। वैसेही गुरु, अर्थात् विद्यालयका शिक्षक, भी अपने मनका छात्र नहीं निर्वाचित कर सकता । वह चाहे जो हो, गुरु और शिष्य दोनोंका कर्तव्य ह कि चित्तको स्थिर करके यथोचित रूपसे परस्पर व्यवहार करके अपने कर्तव्यका पालन करें।
गुरु-शिप्यके सम्बन्धकी और एक विशेषता है। शिष्यसे शासनके द्वारा काम कर लेना गुरुके लिए यथेष्ट नहीं है। गुरुका कर्तव्य शिष्यको शिक्षा देना है, शासन करना नहीं है । शासन और शिक्षामें बहुत बड़ा अन्तर है। शासनका उद्देश्य है कि शासित व्यक्तिको, उसके हृदयमें चाहे जो हो, बाहर