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ज्ञान और कर्म ।
[ द्वितीय भाग
किसी किसी विशेष स्थल में, जैसे धर्मके उपदेशको लेने में, यह आवश्यक है कि गुरु और शिष्य दोनों एक धर्मावलम्बी हों। इसके सिवा अन्यत्र गुरु और शिष्य अगर भिन्न भिन्न धर्मावलम्बी और भिन्न भिन्न जातीय हों, तो कोई हानि नहीं है। बल्कि हिन्दूशास्त्र में ऐसाही होनेकी विधि है । मनुजी कहते हैं— श्रद्दधानः शुभां विद्यामाददीतावरादपि ।
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( मनु २ । २३८ ) लौकिकं वैदिकं वापि तथाध्यात्मिकमेव च । आददीत यतो ज्ञानं तं पूर्वमभिवादयेत् ॥ " ( मनु २।११७ )
अर्थात् शुभ विद्याको नीच जातीय पुरुषसे भी श्रद्धापूर्वक ग्रहण करना चाहिए। और फिर कहते हैं — लौकिक, वैदिक तथा आध्यात्मिक, कोई भी ज्ञान जिससे पावे उसे पहले प्रणाम करके संमानित करना चाहिए ।
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अतएव जिनसे किसी भी विषयकी शिक्षा प्राप्त की जाय, वह चाहे जिस जाति और संप्रदाय के हों, उनका संमान और भक्ति करना शिष्यका अवश्य कर्तव्य है । और, शिष्य भी चाहे जिस जाति और संप्रदायका हो, उसके साथ यत्न- पूर्वक स्नेहका व्यवहार करना गुरुका आवश्यक कर्तव्य है ।
गुरु और शिष्य भिन्न भिन्न जातीय होनेसे, कभी कभी ऐसा भी हो सकता है कि जाति के अभिमानवश गुरुका यथायोग्य संमान और भक्ति शिष्य नहीं करता, और गुरु भी शिष्य के साथ यथोचित यत्नपूर्वक स्नेहका व्यवहार नहीं करता । किन्तु ऐसा होना अत्यन्त अन्याय और दुःख जनक है तथा उसका फल बहुतही अशुभकर है । जिसे गुरु कह कर मानना होगा, शिष्य हो जानेपर दोप- गुणका विचार नहीं किया जा सकता। जब शिष्य हो चुके, तब उसके दोष - गुणका विचार न करके उसकी भक्ति, कमसे कम सम्मान, करना चाहिए | भक्ति-संमान न करनेसे उसके निकट शिक्षा प्राप्त करना संभवपर नहीं । क्योंकि वैसा होनेसे उसकी बातों पर आस्था नहीं होगी, और उसकी बातें मन लगाकर सुनी नहीं जायँगी । उधर गुरुके. लिए भी यही बात है । जिसे शिष्य कह कर ग्रहण किया जाय, तो फिर उसकी शिष्य होनेकी योग्यताका विचार नहीं किया जा सकता। वह विचार