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चौथा अध्याय ] सामाजिक नीतिसिद्ध कर्म।
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चिकित्सकका रोजगार साधारण रोजगार नहीं है। वह रोगीसे धन ले या न ले, एक तुच्छ बात है। रोगी या उसके आत्मीय स्वजन चिकित्सकसे जो पानेकी आशा करके उसे बुलाते हैं वह एक अमूल्य पदार्थ है वह प्राणोंका दान है। चाहे कुछ धन लेकर हो और चाहे न लेकर हो, वह अमूल्य पदार्थ देना जिसके रोजगारका उद्देश्य है, उसे कभी यह नहीं सोचना चाहिए कि मैंने बुलानेवालेसे धन तो लिया ही नहीं, फिर मैं उसके बुलानेसे उसके यहाँ जानेके लिए वाध्य कैसे हो सकता हूँ? चिकित्सकसे लोग जिस अमूल्य प्रतिक दानकी याचना करते हैं उससे किसीको भी वंचित न करना ही उसका कर्तव्य है-उसका धर्म है।
चिकित्सकोंको इस पर भी दृष्टि रखनी चाहिए कि चिकित्साशास्त्रका कुछ भी ज्ञान न रखनेवाले विज्ञापनी वैद्य .जो आजकल अखबारों में प्रलोभनसे पूर्ण झूठी बड़ाईसे भरे अपने लंबे-चौड़े नोटिस छपवाते हैं, और एकही दवा सौ सौ रोगों पर काम करनेवाली बताकर लोगोंको ठगते हैं और आयुर्वेदको इस तरह बदनाम करते हैं--लोगोंके धन और प्राण दोनोंको नष्ट करते हैं, उनका प्रचार पबलिकमें न बढ़ने पावे । चरकजीने (.) कहा है कि जो चिकित्सक नहीं है उसकी दवा इन्द्रके वज्रसे भी बढ़कर भयानक है।
७ गुरु-शिष्यसम्बन्ध और उसकी नीति । गुरु-शिष्य सम्बन्ध अति प्रयोजनीय और अति पवित्र संबंध है। कोई चाहे जितना बुद्धिमान् और क्षमताशाली क्यों न हो, गुरुके उपदेशके बिना वह किसी भी विषयका संपूर्ण ज्ञान नहीं प्राप्त कर सकता, और किसी भी विषयमें अच्छी तरह कर्मकुशल नहीं हो सकता। किसीके भी निकट आप किसी विषयका ज्ञान या किसी काममें निपुणता प्राप्त करनेके लिए जाइए, वह अगर स्नेह और यत्नके साथ वह ज्ञान न दे, या वह काम न सिखावे, तो वह शिक्षा फलदायक नहीं हो सकती। गुरुका वह आन्तरिक स्नेह या यत्न प्राप्त करनेके लिए गुरुकी भक्ति करना आवश्यक होता है। वर्तमानकालमें प्रायः धनहीके बदलेमें शिक्षा अवश्य दी जाती है, किन्तु तो भी वास्तवमें स्नेह
और भक्तिका आदान-प्रदान ही इस सम्बन्धकी जड़ है। और, इसी कारण यह सम्बन्ध अत्यन्त पवित्र है।
(१) चरकसंहिताका पहला अध्याय देखो।