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ज्ञान और कर्म।
[द्वितीय भाग
किसी विशेष कार्यमें प्रवृत्त या उससे निवृत्त करना । शिक्षाका उद्देश्य है कि शिक्षित व्यक्तिके भीतरी दोष संशोधित हो जायें, और वह उत्कर्ष प्राप्त करे अतएव शासन जो है वह भय दिखाकर हो सकता है, और शिक्षा जो है वह भक्तिका उद्रेक हुए बिना नहीं होती।
८प्रभु-भृत्यका सम्बन्ध और उसकी नीति । संसारयात्राके निर्वाहके लिए प्रभु-भृत्यका सम्बन्ध अति आवश्यक है । संसारमें अनेक काम ऐसे हैं जिन्हें हम खुद नहीं कर सकते, अन्यकी सहायतासे वे काम करने होते हैं, और वह सहायता पानेके बदले में सहायता करनेवालेको वेतन ( तनख्वाह ) देना पड़ता है । जहाँ काम ऊँचे दर्जेका है, वहाँ सहायकको भृत्य नहीं कहते, उसे कर्मचारी या सहकारी कहते हैं।
प्रभुका कर्तव्य भृत्यके साथ सदय व्यवहार करना और उसके सुख और स्वच्छन्दता पर भी कुछ दृष्टि रखना है। ऐसा करनेसे उससे, बिना ताड़नाके अनायास पूर्णमात्रामें काम करा लिया जा सकता है। उधर भृत्यका कर्तव्य है, सर्वदा यत्नके साथ ध्यान देकर प्रभुका काम करना । ऐसा करनेसे वह प्रभुसे सदय व्यवहार पासकता है। अर्थात् दीनोंमेंसे हरएक अपने कर्तव्यका पालन यत्नपूर्वक करे, तो दोनोंही परस्पर एक दूसरेके कर्तव्यपालनमें सहायता कर सकते हैं, और उसके द्वारा दोनोंका विशेषरूपसे उपकार होसकता है। जो प्रभु भृत्यके ऊपर सहृदयताका भाव रखनेके कारण उससे अधिक परिश्रम न कराकर यथासाध्य अपना काम आप करता है, वह भृत्यको ही भक्तिभाजन नहीं होता, खुद भी बहुत कुछ पराधीनतासे मुक्त रहता है । कारण, जो प्रभु जितना अपने भृत्यसे सेवा लेनमें व्यग्र रहता है, वह उतना. ही अपने भृत्यके वश होजाता है।
९ देनेवाले-लेनेवालेका सम्बन्ध और उसकी नीति। देनेवाले और लेनेवालेका संबन्ध बड़ा ही विचित्र है। एकका अभाव (कमी ) और दूसरेकी उसको पूर्ण करनेकी इच्छा, इन दोनोंके मिलनेसे देनेवाले और लेनेवालेका सम्बन्ध तथा अन्यान्य नाना प्रकारके सम्बन्ध स्थापित होते हैं। वह अभाव धनका भी हो सकता है, सामर्थ्यका भी हो
सकता है। बिना बदलेके और के अभावको पूरा करना ही दान कहलाता है, • और इस तरहकी अभाव-पूर्तिसे ही दाता और लेनेवालेके सम्बन्धकी सृष्टि