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चौथा अध्याय
सामाजिक नीतिसिड कन:
बातें अवश्य सच है, लेकिन उसके दोषका प्रनिपल इनरी विवेचना अनु. सार नहीं निरूपित होगा, आइनके अनुसार निरन होगा, और वह निरपित प्रतिफल हम लोगोंकी समझसे अति कठिन हो सकता है । जो इन प्रतिफलका विधान करता है, वह आईन ही जद उसे ककोलनी सहायत लेनेके अधिकारसे वंचित नहीं करता, बल्कि अपने वकीलके आगे दोष स्वीकार करनेको उसके विरुद्ध प्रमाणके रूपमें ग्रहण करनेका निषेध करता है, तब वैसी स्वीकारोक्तिके लिए उसे क्षतिग्रस्त करना मुनासिब नहीं है। __ दूसरे प्रश्नके उत्तरमें यह बात कही जा सकती है कि यद्यपि विशेष अवस्थामें वकीलके लिए पक्ष-परिवर्तन आइनके अनुसार निषिद्ध न हो, तो भी न्याय और युक्तिके अनुसार वह विधि-सिद्ध नहीं जान पड़ना । कारण, मुकदमेकी प्रथम अवस्थामें वकील जिसके पक्षमें था, उस व्यक्तिका अपने मुकदमेकी बहुतसी गोपनीय बाने विश्वास करके उसे बता देना बहुत संभव है। अतएव पक्ष-परिवर्तन करनेसे वकील उस तरह जानी हुई एक पक्षकी गोपनीय बातोंका व्यवहार उसीके विरुद्ध नहीं कर सकता, अथच इच्छापूर्वक वैसा न करनेपर भी समय समयपर ऐसा हो सकता है कि वह वैसा किये बिना रह नहीं सकता। जैसे-जिस जगह वह जिस पक्षका वकील हुआ है उस पक्षके विरुद्ध किसी आपत्तिका खण्डन उसी गोपनीय बातके ऊपर संपू. र्णरूपसे निर्भर है, उस जगह उस बातका प्रयोग अपने मवक्किलके अनुकूल न करके चुप रहना दोष है, और उधर उसको कह देने में भी दोप है। इस तरहके उभय संकटको बचानेके लिए पक्षपरिवर्तन न करना ही वकील-बैरिस्टरका कर्तव्य है।
ऐसे स्थल अनेक हैं, जहाँ उक्त प्रकारका उभय संकट आपड़नेकी संभावना नहीं है । जैसे-अगर कोई अपील-अदालतमें किसी मुकदममें वकील किया जाय और नत्थीके ( अदालतमें दाखिल किये हुए ) कागजपत्र देखनेके सिवा और किसी तरह मुकदमेकी कोई बात उसे मालम न हुई हो, तो, वह मुकदमा फिरसे विचारके लिए नीचेकी अदालतमें जानेके बाद अगर फिर अपील हो, उस अपीलमें उस वकीलके दूसरे पक्षमें खड़े होनेके बारे में विशेष बाधा नहीं देख पड़ती। लेकिन जब अपील-अदालतमें भी मुकदमेकी गोपनीय बातें वकीलको मालूम हो जाना एकदम असंभव नहीं है, तब पक्षपरिवर्तनका साधारण निषेध सर्वत्र मानना ही अच्छा है।