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ज्ञान और कर्म।
[द्वितीय भाग
___ प्रथम प्रश्नके सम्बन्ध में वक्तव्य यह है कि वकील या बैरिस्टर अगर किसी आदमीको अपनी जानकारीसे अपराधी या अन्यायकारी समझ लें, तो उस व्यक्तिको उस अपराधके दण्ड या उस अन्यायकार्यके फलभोगसे छुड़ानेके लिए उसके पक्षके समर्थन में नियुक्त होना, आईनके अनुसार निषिद्ध न होने पर भी, सदाचारके अनुसार उनका कर्तव्य नहीं है। कारण, उस अवस्थामें वह व्यक्ति अपने दोषको दूर करनेके लिए अपनी हार्दिक चेष्टा करनेको समर्थ नहीं होसकता, वैसा हो सकना संभव ही नहीं है। लेकिन जो वह आदमी अपने अपराध या अन्याय कार्यको खुद स्वीकार करके केवल दण्ड या प्रतिशोधपरिमाण घटाने के लिए उस वकील या बैरिस्टरकी सहायता माँगे, तो उस जगह उसके पक्षमें खड़े होनेमें कोई बाधा नहीं रह सकती।
जो व्यक्ति अपनी ओर नियुक्त करना चाहता है उसके अपराध या अन्यायकार्यको, वकील या बैरिस्टर अपने ज्ञानसे न जानकर, केवल अनुमान करें, तो उसके पक्षके समर्थनको अस्वीकार करना उचित नहीं है। जबतक उसका अपराध या अन्याय कार्य अदालतके विचारसे निश्चित न हो, तबतक उसको दोषी मान लेना अनुचित है। लेकिन जहाँ उसके पक्षके समर्थनकी चेष्टा सफल होनेकी संभावना बहुत थोड़ी है, वहाँ वह बात उससे कह देना, और मुकदमा अगर आपसमें समझौता करनेके योग्य हो तो राजीनामा कर लेनेकी सलाह देना, वकील बैरिस्टरका कर्तव्य है। ___ इस प्रथम प्रश्नके सम्बन्धमें एक संकटकी जगह है। वकील या बैरिस्टर अभियुक्त आदमीको निरपराध समझकर उसके पक्षका समर्थन करनेके लिए जब नियुक्त हो चुके, उसके बाद अगर वह आदमी खुद उस वकील या बैरिस्टरके आगे अपना अपराध स्वीकार करे, तो उस समय उसका क्या कर्तव्य है ? अनेक बुद्धिमानोंका यही मत है कि उस समय मुकदमा छोड़ देना वकील या बैरिस्टरको उचित नहीं है । कारण, ऐसा होनेसे वह व्यक्ति बड़ी ही विपत्तिमें पड़ जायगा। यह मत न्याय-संगत जान पड़ता है। कोई कोई कह सकते हैं कि वह व्यक्ति जब अपनी ही स्वीकृतिके अनुसार दोषी है, तब उसके लिए फिर वकीलका अभाव नई विपत्ति नहीं है। उसका मुकदममें हारना और अपने दोषका प्रतिफल पाना ही न्याय-संगत है और वैसा न होनेसे उसे समाजकी विपत्तेि कहें तो कह सकते हैं । ये सब