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ज्ञान और कर्म।
[द्वितीय भाग
जहाँ एक पदके दोनों प्रार्थी किसी निर्वाचक (वोटर ) के बंधु हैं, वहाँ उस अवस्थामें निर्वाचक कभी कभी यह सोच सकता है कि किसीके भी अनुकूल मत न देकर चुप रहना ही अच्छा है। किन्तु यह भी नियमविरुद्ध है। अपने ज्ञानके अनुसार मत प्रकट करना निर्वाचकका कर्तव्य है। उस ‘जगह पर बन्धुत्वकी रक्षा विचारणीय विषय नहीं है।
(४) निर्वाचनकी प्रणालीके सम्बन्ध पण्डितोंके बीच मतभेद है। इस जगह पर पहले दो बातें ठीक कर लेन आवश्यक है। एक यह कि निर्वाचकोंमेंस सबके मतका मूल्य समान ही समझा जायगा या उसमें कुछ इतर विशेष रहेगा । दूसरी यह कि यदि दो प्रार्थियोंके अनुकूल मतोंकी संख्या समान होगी तो क्या किया जायगा?
पहली बातके संबंधमें वक्तव्य यह है कि सभी निर्वाचकोंके मतका मूल्य प्रायः सर्वत्र ही समान जाना जाता है । एक बहुदर्शी बुद्धिमान पण्डित और धार्मिक मतका मूल्य एक अनभिज्ञ अल्पमति अल्पशिक्षित स्वेच्छाचारीके मतके मूल्यकी अपेक्षा अधिक होने पर भी, उस मूल्यकी ठीक न्यूनाधिकता निश्चित करनेका कोई उपाय नहीं है । कारण, अभिज्ञता, बुद्धिमत्ता, -पाण्डित्य आर धर्मपरायणताका सूक्ष्मभावसे परिमाण नहीं किया जासकता । अतएव जहाँ तारतम्यका परिणाम ठीक नहीं किया जासकता, वहाँ सब निर्वाचकोंके मतका मूल्य तुल्य मानना ही पड़ेगा । केवल एक जगह सब निर्वाचकोंके मतका मूल्य समान नहीं गिना जासकता, और उसका कारण यह है कि उस स्थल पर उसका तारतम्य रखना आवश्यक है, और सहज ही उसका परिमाण किया जासकता है। वह एक जगह यह है-जहाँ पर निर्वाचित आदमी निर्वाचकोंकी संपत्तिके ऊपर 'कर ' स्थापन आदिके नियम निर्धारित कर सकता है। वैसे स्थलमें कम और बहत धनी निर्वाचकके मतका मूल्य तुल्य होनेसे, जब प्रथमोक्त श्रेणीके निर्वाचकोंकी संख्या अधिक होगी तब उसी श्रेणीके लोगोंका निर्वाचित होना संभवपर होगा, और यह बात होने पर निर्वाचित व्यक्तिके द्वारा अनुमोदित नियमवाली अल्पधनसंपन्न व्यक्तियोंके अनुकूल और अधिकधनसंपन्न लोगोंके लिए अपेक्षाकृत प्रतिकूल होनेकी संभावना है। इसी कारण ऐसे स्थलमें किसी विशेष परिमितवित्तसम्पन्न व्यक्तिके मतका मूल्य एक मान कर, क्रमशः दुगने तिगने इत्यादि परि