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चौथा अध्याय ] सामाजिक नीतिसिद्ध कर्म। ३०१ माणके धनवाले व्यक्तिके मतका मूल्य 'दो' 'तीन' इत्यादि गिना जाता है।
दूसरी बातके सम्बन्धमें वक्तव्य यह है कि दो प्रार्थियोंके अनुकूल निर्वाचकोंके मतोंकी संख्या समान होने पर, अगर किसी सभामें निर्वाचन हो, तो सभापतिके अतिरिक्त मतके अनुसार निर्वाचन ठीक हुआ करता है। अन्यत्र इस सम्बन्धमें विशेष नियम रहनेकी आवश्यकता है।
अब यही ठीक करना बाकी है कि निर्वाचक लोग प्रार्थियोंके अनुकूल अपना अपना मत किस तरह प्रकट करें।
जहाँपर निर्वाचन एक पदके लिए है, और प्रार्थी केवल दो जने हैं, वहाँ तो कुछ झंझट नहीं है । हरएक निर्वाचक जिस प्रार्थीको योग्य समझे, उसीके अनुकूल अपना मत प्रकट करे, और अधिकांश मत जिस प्रार्थीके अनुकूल होंगे वही निर्वाचित होगा।
जहाँ एक पदके लिए दोसे अधिक प्राथीं हैं, वहाँ निम्नलिखित दो प्रणा-- लियोंमेंसे कहीं पहली, और कहीं दूसरी काममें लाई जाती है।
पहली प्रणाली । अनुमान कर लो, तीन प्रार्थी हैं, क, ख और ग । निर्वाचक १९ आदमी हैं। उनके मत इस तरह हैं-यथा ८ क के अनुकूल हैं, ६ ख के अनुकूल हैं, ५ ग के अनुकूल हैं । क के अनुकूल सबसे अधिक मत होनेके कारण क का निर्वाचन होगा।
इस प्रणालीके अनुकूल केवल इतना ही कहा जा सकता है कि निर्वाचकोंमेंसे अधिकांशके मतसे क प्रथम स्थान पानेके योग्य है, अतएव प्रार्थियोंमें क सर्वश्रेष्ठ है। किन्तु इसके विरुद्ध यह आपत्ति है कि यद्यपि क ने आठ आदमियोंके मतसे प्रथम स्थान पाया, और ख या ग कोई भी उतने निर्वाचकोंके. मतमें प्रथम स्थानका अधिकारी नहीं हुआ, किन्तु क अन्य ग्यारह निर्वाचकोंके मतमें केवल तृतीय स्थानका अधिकारी मात्र हो सकता । और, उनमेंसे कोई ख का प्रथम स्थानका और ग को द्वितीय स्थानका, और कोई ग को प्रथम स्थानका और ख को द्वितीय स्थान का, अधिकारी समझता है । ख
और ग मेंसे अगर कोई एक प्रार्थी होता तो अन्य ग्यारहों निर्वाचकोंका मत अपने अनुकूल पाता । अतएव प्रथम प्रणालीका यह विचित्र फल होता है कि क की अगर अकेले ख के साथ या अकेले ग के साथ प्रतियोगिता होती.