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ज्ञान और कर्म।
[द्वितीय भाग
जिनकी अवस्था अच्छी है उनका कर्तव्य है कि धन और सामर्थ्य के द्वारा यथाशक्ति परोसियोंका उपकार करें । उन्हें कभी ऐसा काम न करना चाहिए जिससे किसी परोसीके मनको कष्ट पहुंचे।
किसीके भी मनको कष्ट देना उचित नहीं है । हम जैसे अपना सुख चाहते हैं, वैसे ही और सब भी सुख चाहते हैं । सारा जगत् सुख चाहता है, दुःख नहीं चाहता । मैं क्षुद्र होने पर भी उसी जगत्का अंश हूँ। मैं जब जगत्की उस इच्छाके अनुकूल काम करूँगा, तभी मेरा जगत्में आना और रहना सार्थक होगा। और, जो मैं उस इच्छाकी प्रतिकूलता करूँगा, तो जगत् मुझे सहजमें नहीं छोड़ेगा । मैं किसीके मनको कष्ट दूंगा, तो वह कष्ट विद्वेष-भावका रूप धारण कर लेगा, और उस विद्वेषके फलसे तरह तरहकी अशान्ति और अनिष्ट हो सकता है।
जो लोग श्रीसम्पन्न हैं, उन्हें कोई भी काम अमित और असंयत आडम्बरके साथ न करना चाहिए। उसमें अकारण बहुतसा धन खर्च होता है। वह धन बचे तो अनेक अच्छे कामों में लग सकता है। फिर वैसे दृष्टान्तका फल भी अहितकर है। जिनके पास कुछ धन है, वे उनकी देखादेखी, कष्ट होने पर भी, वैसे ही आडंबरके साथ काम करनेकी चेष्टा करते हैं, और फिर पीछे अपनेको क्षतिग्रस्त समझते हैं। जिनके पास कुछ भी पूँजी नहीं है, वे यह सोचकर कष्ट पाते हैं कि हाय, हम वैसे ढंगसे काम नहीं कर सके ! हमारे समाजमें, विवाह आदि अनेक कामोंमें अतिरिक्त अर्थव्यय, इसी तरह दोचार आदमियोंकी देखादेखी उन्हींके दृष्टान्तके अनुसार होने लगा है। मैंने एक प्रतिष्ठित रईस आदमीके मुँहसे सुना है उनके पिताका नियम था कि वह अपनी कन्याओंके विवाहमें अतिरिक्त अर्थव्यय न करके ब्याहके बाद कन्याको कुछ स्थायी संपत्ति दे देते थे । अन्य एक बहुत बड़े ऐश्वर्यशाली बुद्धिमान युवकने मुझसे कहा था कि उन्होंने अपनी स्त्रीको उपदेश दिया है कि साधारण निमन्त्रणमें, जहाँ अनेक स्त्रियोंके जमा होनेकी संभावना हो. वह मामूली गहने और कपड़े पहन कर जाया करे। कारण, बहुमूल्य मणिमुक्ताजटित अलंकार पहन कर जानेसे अपने मनमें गर्व और औरोंके मनमें क्षोभ उत्पन्न हो सकता है। इस लिए बहुमूल्य अलंकार आदि केवल मा-बहन वगैरह स्वजनोंके सामने ही पहनना उचित है, क्योंकि उन्हें उससे सुख होगा,,