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चौथा अध्याय ] सामाजिक नीतिसिद्ध कर्म।
२२३ क्षोभ नहीं होगा। इन दोनों आदमियोंकी बातें बहुत ठीक और अच्छी हैं। हरएक आदमीको इन्हें याद रखना चाहिए।
जिसकी अवस्था अच्छी नहीं है उसे चाहिए कि किसी संपन्न परोसीकी अवस्था देखकर अपने मनमें क्षोभ न आने दे। उससे उसका कोई लाभ नहीं है, बल्कि अपनी गरीबीके कारण वह जो कष्ट भोग रहा है वह कष्ट
और भी तीव्र और असह्य जान पड़ेगा। साथ ही अपनी आध्यात्मिक उन्नतिकी राह रुंध जायगी। इस लिए परसन्ताप न करके यथाशक्ति अपनी अवस्था अच्छी बनानेकी वेष्टा करना, और परोसियोंके सुखमें सुखी होनेका अभ्यास करना उचित है । ऐसा करेंगे तो अपनी चेष्टा और पराये मंगलकी कामनासे उनका मंगल होगा। अन्यकी, खास कर परोसियोंकी, प्रीति और शुभकामना बिल्कुल ही तुच्छ बात नहीं है । मैं यह नहीं कहता कि उसका कोई अनैसर्गिक या अलौकिक फल है। नैसर्गिक नियमसे ही उसका सुफल मिलता है। जिसे परोसी प्यार करते हैं, और जिसका भला होनेसे सुखी होते हैं, उसका सभी यथाशक्ति उपकार करते हैं, और वक्त-बेवक्त सभी उस गुण गाते हैं। वह गुणगान मौका पड़ने पर उसके काम आता है, उपकार करता है। __ प्रतिवासी समाजकी चर्चाके साथ साथ हिन्दूसमाजकी दलबंदीके बारेमें भी दो-एक बात कहनी आवश्यक हैं। हिन्दूसनाजका बंधन शिथिल हो जानेसे उसमें दलबंदीका आडम्बर और साथ ही उत्साहकी मात्रा बहुत कुछ घट गई है। जब दलबंदीकी प्रबल अवस्था थी तब उसके द्वारा एक उपकार यह होता था कि कुछ सामाजिक अपराधोंका शासन समाज ही किया करता था, उनके लिए अदालतका दरवाजा नहीं खटखटाना पड़ता था। और, मुकद्दमा उननेसे बहुतसे धनका नाश और उत्तरोत्तर झगड़ा बढ़ना आदि जो गुरुतर अनिष्ट इस समय होते हैं, उस समय नहीं होते थे। किन्तु सामाजिक शासन अपनी इच्छाका शासन होने पर भी, समय समय पर, सबल और निर्बलके विरोधकी जगह, उसका अन्याय भी असह्य हो उठता है। सामाजिक शासनके बीच, एक पक्तिमें बैठकर भोजन करना रोक दिया जाना उतना असह्य नहीं है, लेकिन पुरोहित नाई धोबी वगैरहका दण्डितके घर जाना रोक देना बड़ा ही कष्टदायक होता है । धोबी