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ज्ञान और कर्म।
[द्वितीय भाग
निष्फल होगी। दूसरे, इन दो बातोंको छोड़ देनेसे समाजकी एकताके संपादनम विशेष विघ्न नहीं होगा। साधारणतः लोगोंका जीवनभरमें एक दिन एक बार विवाह होता है। किसका किसके साथ ब्याह हो सकता है, यह जाननेके लिए भी लोग उतने व्यग्र नहीं हैं । अतएव असवर्ण विवाह न चलने पर भी, परस्परके देखने, सुनने, बैठने, खड़े होने, बातचीत करने आर सन्तुष्ट करने आदि प्रतिदिनके कामोंसे ( किसीके मनके भीतर किसीके प्रति घृणा या ईर्षाका भाव अगर न हो तो) भिन्न भिन्न जातियों में आत्मी. यता और एकता स्थापित करनेमें कोई बाधा नहीं हो सकती। आहार अवश्य ही प्रतिदिनका कार्य है, और सबके एक साथ एक जगह बैठकर भोजन न कर सकनेसे अवश्य ही कुछ असुविधा होती है। आहारके सम्बन्धका जातिभेद देशभ्रमणके लिए भी असुविधाजनक है। किन्तु उस असुविधाके साथ कुछ सुविधा भी है। जहाँ तहाँ और जब चाहो तब भोजनका होना
ीय नहीं है । अगर जहाँ तहाँ और जब तब भोजन किया जाय, तो भोजनके समय और भोजनकी सामग्री, दोनों बातोंमें अनियम होनेकी संभावना है । और, उससे स्वास्थ्यहानि भी हो सकती है। यह बात नहीं कही जा सकती कि स्वास्थ्यके नियमों पर सभी लोगोंकी समान आस्था है। इसी लिए जैसे तैसे आदमीके हाथसे खानेकी सामग्री लेना युक्तिसिद्ध नहीं है। देखा जाता है कि जो लोग इस मामले में दृढ़ नियम पालन करके चलते हैं उनका स्वास्थ्य औरोंकी अपेक्षा अच्छा रहता है, और उन्हें प्रायः उत्कट रोग नहीं होते।
ब्राह्मणसभा, कायस्थसभा, वैश्यसभा आदि जो सभाएँ भिन्न भिन्न जातियोंकी उन्नतिके लिए स्थापित होती हैं उनके द्वारा हिन्दूसमाजका हित हो सकता है। किन्तु वे सभायें यदि परस्परके प्रति विरुद्ध आचरण करने में प्रवृत्त हों, तो न खुद उनका कुछ भला हो सकता है, और न हिन्दूसमाजमेंसे किसीका उपकार हो सकता है।
हिन्दू-मुसलमानोंका विवाद। . हिन्दू और मुसलमान दोनों भिन्न भिन्न धर्मावलम्बी हैं, इस खयालसे उन्हें परस्पर झगड़ा या विरोध न करना चाहिए । किसीका - भी धर्म यह नहीं कहता कि तुम दूसरेका अहित करो। फिर दोनोंको जब एक ही देश में