________________
૨૮૮
ज्ञान और कर्म।
[द्वितीय भाग
इसे समाजकी प्रथम नीति मानना उचित है।
इसकी संभावना बहुत थोड़ी है कि सब शुक्लवर्ण, या सब पीतवर्ण, या सब कृष्णवर्ण मनुष्यमण्डली एक जातीय समाजके अन्तर्गत होगी। हरएकके भीतर इतने अवान्तर विभाग हैं, इतना स्वार्थका अनैक्य है कि किसीकी एकताका होना सहज नहीं है।।
स्वार्थ और उद्देश्यकी एकता न रहनेले जातीय समाज गठित नहीं हो सकता, मगर वह स्वार्थ और उद्देश्य बुरा न होना चाहिए । यह जातीय समाजकी दूसरी नीति है। ___ बुरे स्वार्थ या बुरे उद्देश्यको सिद्ध करनेके लिए अगर जातीय समाज गठित हो, तो वह न तो सुफल ही दे सकता है, और न बहुत समय तक टिक ही सकता है।
इस जगह पर भारतके हिन्दूसमाजमें रहनेवाले जातिभेद और हिन्दू तथा मुसलमानोंके जातीय विरोधके सम्बन्धमें दो-एक बातें कहना आवश्यक है।
हिन्दूसमाजमें जातिभेद । हिन्दसमाजमें जातिभेद संभवतः पहले वर्णभेदसे ही पैदा हुआ होगा । वर्ण शब्दका व्यवहार इस समय भी जातिके प्रतिशब्दके रूपमें होता है। शुक्लवर्ण आयंगण जब कृष्णवर्ण शूद्रोंके साथ आकर मिले, दोनोंका परस्पर संघर्षण हुआ, उस समय आर्य और शूद्र, यह जातिविभाग या वर्णविभाग सहज ही हुआ होगा। फिर शुक्लवर्ण आर्यगण भी कार्यके अनुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, इन तीन विभागों में बँट गये होंगे। इस तरह हिन्दूसमाज ब्राह्मण क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, इन चार वर्गों में बँट गया । पूर्वकाल में विद्याम, बुद्धिमें और अन्य अनेक सद्गुणों में ब्राह्मण लोग सबसे श्रेष्ठ थे । इसी कारण उस समयके नियम विशेषरूपले ब्राह्मणों के अनुकूल थे। उस समय शूद्र जातिमें वैसे सद्गुण नहीं थे, इसी कारण उस समयके नियम उनके अनुकूट नहीं हैं। किन्तु अच्छे कर्म करनेसे शुद्ध भी प्रशंसनीय होते हैं और मृत्युके उपरान्त. स्वर्गलोकको जाते हैं-यह बात भी स्पष्टरूपसे शास्त्र में लिखी है (१)।
गीतामें भी भगवान् श्रीकृष्णने कहा है
(५) मनुसंहिता १०! १२७-१२८ देखो।