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चौथा अध्याय ] सामाजिक नीतिसिद्ध कर्म ।
२८७ तोंने प्रथमोक्त अर्थके अनुसार जातिविभागके सम्बन्धमें कुछ नियम निर्धारित कर दिये हैं । उनके अनुसार आकार और वर्णका सादृश्य एक जातित्वका निश्चित लक्षण है । भाषाका सादृश्य भी एक लक्षण है सही, लेकिन उतना निश्चित लक्षण नहीं है। उनके मतसे पृथ्वीके सब मनुष्य तीन प्रधान जातियों में बंटे हुए हैं। जैसे-(.) इथिओपियन या कृष्णवर्ण, (१) मंगोलियन या पीतवर्ण, (३) काकाशयन या शुक्लवर्ण । भारतके हिन्दूलोग इनमेंसे क्रिस विभागके अन्तर्गत हैं, इस बारे में कुछ मतभेद है। दो यूरोपियन पण्डित ( जो इस देश में आये थे) इस मतको ठीक नहीं मानते। उनमेंसे एक तो यहाँ तक पहुंचे हैं कि उनके मतसे भारतवासियोंका आर्य और अनार्य इन दो श्रेणियों में विभक्त होना स्वीकार करने योग्य नहीं है, और ' बनारसके संस्कृतकालेजके उच्चजातीय छात्रोंको और रास्ते में झाडू देनवाले भंगियोंको देखकर यह कोई सपने में भी नहीं खयाल करेगा कि वे दोनों जुदी जुदी जातिके हैं ' (१)। यह बात ठीक हो या न हो, भाषा अगर जरा
और संयत होती तो अच्छा होता। किन्तु भाषाके संयत न होनेसे किसीके चिढ़ने या नाराज होनेकी जरूरत नहीं है। असंख्यवैचित्र्यपूर्ण मानवमुखमण्डलके अवयवोंका स्थूल परिचय सिर्फ कुछ लोगोंके मुंहसे लेकर सारे देशके लोगोंकी जातिके निर्देशका नियम कहाँ तक संगत है, यह ठीक न कह सकने पर भी, यह ठीक कहा जा सकता है कि घात-प्रतिघातका नियम जगमें अप्रतिहत है । अतएव जिन उच्च जातीय हिन्दुओंने पाश्चात्योंको म्लेच्छ कहा है उन्हें अगर एक पाश्चात्य पण्डित झाडूदारके समान बतलावे तो कोई बड़े विस्मयकी बात नहीं है। मगर कुछ आश्चर्यकी बात यह अवश्य है कि हिन्दुओंके वर्णभेद अर्थात् जातिभेड़की जो लोग इतने तीव्रभावसे निन्दा करते हैं, उन्हीं में वह वर्णभेदका ज्ञान इतना तीव्र है । मतलब यह कि जो आत्माभिमान इस वर्णभेद या जातिभेदकी जड़ है, उसे त्याग करना अति. कठिन है । अतएव इस आलोचनामें आनुषंगिक रूपसे यह नीति उपलब्ध होती है कि
किसी वर्ण या जातिको अन्य वर्ण या जातिकी अवहेला न करनी चाहिए।
(१) Sir H. H. Risley's "The People of India" Pages 20-25 देखो।