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ज्ञान और कर्म । .
[द्वितीय भाग
१ जातीय समाज और उसकी नीति । जातीय समाज क्या है, यह ठीक करनेके लिए पहले यह जान लेना चाहिए कि जाति किसे कहते हैं। 'जन' धातुके आगे ‘क्ति' प्रत्ययको संयुक्त करनेसे जाति शब्द बनता है, अतएव उसका यौगिक अर्थ जन्मके साथ संबन्ध रखता है । मूलमें एक पिता-मातासे, या एक देश में जिन्होंने जन्म लिया है, वे ही प्रायः एकजातीय हैं। मगर इसके अनेक व्यतिक्रम भी देख पड़ते हैं। ईसाइयों या यहादियोंके धर्म-शास्त्रके अनुसार (१) सभी मनुष्य नूहकी सन्तान है, लेकिन सभी एक जातीय नहीं हैं। सभी मनुष्यजातिके अन्तर्गत अवश्य है, लेकिन मनुष्यजाति जिस अर्थमें एक जाति है, जातीय समाज कहनेसे, उसमें, उस अर्थमें जाति शब्दका व्यवहार नहीं किया जाता । एक देशमें जन्म होने पर भी, सभी जगह लोग एक जाति नहीं होते । भारतमें, वर्तमान समयमें, अँगरेज और मुसलमान भी पैदा होते हैं, पर वे सब एक ही जातिके नहीं है। मूलमें एक पिता-मातासे जिनका जन्म है, उन्हें एक जातीय कहने में बहुत कम बाधा देखी जाती है। एक देशमें उत्पन्न सब लोगोंको एक जातीय कहनेमें उसकी अपेक्षा अधिक बाधा है।
ऊपर जो कुछ कहा गया वह जातिशब्दका स्थूल अर्थ है । इसी बातको जरा और सूक्ष्म भावसे देख लिया जाय तो अच्छा होगा । प्रायः सभी पदाथोंके सम्बन्ध में जातिशब्दका प्रयोग किया जाता है, और वैसे प्रयोगकी जगह उसका अर्थ प्रकार ' या ' तरह ' है । उस विस्तृत अर्थके साथ वर्तमान आलोचनाका कोई सम्बन्ध नहीं है। मानवसमष्टिके सम्बन्धमें जिस जिस अर्थमें जाति शब्दका व्यवहार होता है, उसीकी इस समय विवेचना करनी है। वे अर्थ प्रधानतः दो हैं । आकार-प्रकार और भाषा-व्यवहार आदिके भेदसे मनुष्यजाति जिन सब भिन्न भिन्न श्रेणियों में बाँटी जाती है उन्हींको जाति कहते हैं। जैसे—आर्यजाति, हबशीजाति, हिन्दूजाति, ब्राह्मणजाति, इत्यादि । जातिशब्दका यह एक अर्थ है । और, एक देशमें या एक राजाकी अधीनतामें जो रहते हैं उन्हें भी एक जाति कहते हैं । जैसे, अंगरेज जाति है। जाति शब्दका यह और एक अर्थ है । जातितत्त्वके ज्ञाता पाश्चात्य पण्डि
(१) Genesis X, P. ३२ देखो।