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चौथा अध्याय ] सामाजिक नीतिसिद्ध कर्म। २८५
विशेष समाजाति । अब विशेष समाजनीति और उसके अनुयायी कामोंके सम्बन्धमें कुछ कहना आवश्यक है। विशेष समाजनीति केवल विशेप विशेष समाजोंमें ही ग्राह्य है, इसलिए पहले समाजका श्रेणी विभाग कर लेने से अच्छा होगा।
समाज, उसकी सृष्टि होनेके नियमानुसार, दो तरहका है । कुछ समाज तो समाजबद्ध व्यक्तियोंकी स्पष्ट प्रकाशित इच्छाले स्थापित हैं-जसे, पण्डितसभा, ब्राह्मणसभा, कायस्थपभा, विज्ञानसभा इत्यादि। और, अन्य कुछ समाज, समाजबद्ध व्यक्तियोंकी किसी स्पष्ट प्रकाशित इच्छाके अनुसार नहीं स्थापित हैं, किन्तु समाजबद्ध लोगोंकी उसके विरुद्ध इच्छा न प्रकाशित होनेसे, वे उसके अन्तर्गत गिने जाते हैं। इस तरहके समाज हिन्दुमनाज, नवद्वीपसमाज, वैष्णवलमाज, इत्यादि हैं। पूर्वोन्त समाज इ तिष्टत और पीछे कहे गये समाज स्वतःप्रतिष्ठित नाममे संक्षेपमं कहे जा सकते हैं।
वे उद्देश्यभेदसे अनेक प्रकार के हैं। विषय या उद्देश्यके भेदसे समाज अनेक प्रकारके हैं । जैसे, कुछ धर्मके अनुशीलन के लिए हैं, कुछ धनके अनुशीलनके लिए हैं, कुछ अन्यान्य कमोंके अनुशीलनके लिए हैं।
इनके सिवा तीन ' सम्बन्ध ' हैं, जो नीति, नियम ( आईन ) और धर्मनीतिके साथ कुछ सम्बन्धयुक्त होनेपर भी, समाजनीतिले विशेष सम्बन्ध रखते हैं। वे तीनों सम्बन्ध है-गुरु-शिष्यसम्बन्ध, अन्य नाम, और देने लेनेवालोंका सम्बन्ध ।
आलोच्य विषय । जिन कई एक विशेष प्रकारके समाज या सम्बन्ध और उनकी नीति तथा उस नीतिपे सिद्ध कमाकी :: या
(१) जातीयसमाज, (२) प्रतिक मानाज, (३) एकधीव गम्बीसमाज, (४) दुनी उनलमज. (५) ज्ञानानुशीलनमाज, (६ ) अर्थानुशीलनसमाज (७) गुरुशिष्यतबन्ध, ( ८ ) प्रभु-नृत्य सम्बन्ध, (९) देनेवाले और लेनेवालेका सम्बन्ध।