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चौथा अध्याय । सामाजिक नीतिसिद्ध कर्म ।
मनुष्यके अधिकांश कर्मोंका अनुशासन सामाजिक नीतिके द्वारा होता है। उन सब कर्मोंकी आलोचनाके लिए यह निश्चय करना आवश्यक है कि समाज और समाजनीति क्या है। सामाजिक नीतिका निर्णय हो जानेसे उसके साथ साथ सामाजिक नीतिसिद्ध कौका भी निर्णय हो जायगा, उनकी अलंग आलोचना करनेका प्रयोजन नहीं रहेगा। जीवजगत्में समाज एक अति वि. चित्र वस्तु है। केवल मनुष्य ही नहीं, चींटी ममाखी आदि कीट-पतंग, और बगले आदि पक्षी और भेड़ भैंसे आदि पशु भी दल बाँधकर रहते हैं। जगमें आकर्षण और विप्रकर्षण, ये दोनों शक्तियाँ सर्वत्र प्रतीयमान हैं । जीव. जगत्में, जीवका समाज उसी आकर्षण शक्तिका फल है, और जीवकी स्वतन्त्रता उसी विप्रकर्षण शक्तिका कार्य है।
जान पड़ता है, जीवकी आदिम अवस्थामें निकटवर्ती परिवारसमूहको लेकर ही समाजकी सृष्टि हुई थी । क्रमशः अनेक प्रकारके समाजोंकी उत्पत्ति हुई। और, वर्तमान काल में सभ्य जगत्में समाज इतने प्रकारके देखनको मिलते हैं कि समाजोंका श्रेणीविभाग करना अत्यन्त कठिन कार्य हो उठा है। एकस्थाननिवासी और एकधर्मावलम्बी व्यक्तियोंको लेकर प्रधानरूपसे समाजका संगठन हुआ था । किन्तु इस समय रेलके द्वारा जाने आनेका सुभीता हो जानेके कारण दूरताका एक प्रकारसे लोप हो गया है, और सुशिक्षाके फलसे मतवैषम्य बहुत कुछ शान्त हो जानेके कारण धर्मविरोध भी अधिकतर घट गया है, इस कारण अनेक स्थानोंके निवासी और विभिन्न