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चौथा अध्याय
सामाजिक नीतिसिद्ध कर्म ।
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धर्मावलम्बी लोग भी कार्यविशेपमें एकमत होकर एक समाज या एक समितिके अन्तर्गत होते हैं। उधर भिन्न भिन्न उद्देश्योंकी प्रेरणासे एक ही परिवारके आदमी भी भिन्न भिन्न समाजोंमें चले जाते हैं। एक ही राजाके शामनाधीन रहना भी एक समाजके अन्तर्गत होने के लिए प्रयोजनीय नहीं है । विद्याके अनुशीलन आदि अनेक कार्योम भिन्न भिन्न राजाओंकी प्रजा एक समा. जमें शामिल हुआ करती है (१)। अतएव समाज शब्दको संकीर्ण अर्थमे न लेकर, उसका व्यवहार विस्तृत अर्थमं करनेसे, समाज-बन्धनके लिए, एक वंशमें जन्म, या एक स्थानमें निवास, या एक धर्ममें विश्वास, या एक ही राजाके शासनाधीन रहना इत्यादि कोई भी बात अत्यन्त प्रयोजनीय नहीं जान पड़ती। केवल समाजमें संमिलित हरएक आदमीका समाजके उद्देश्यके साथ एकमत होना और समाजके अन्तर्गत होनेकी इच्छा भर आवश्यक है। समाजबन्धन जब समाजमें संमिलित लोगोंको इच्छाके ऊपर निर्भर है, तो सामाजिक नियम भी स्पष्ट रूपसे या प्रकारांतरसे अवश्य ही उसी इच्छाके ऊपर निर्भर होंगे। कारण, उसके वे नियम अगर समाजस्य किसी आदमीकी इच्छाके विरुद्ध होंगे, तो वह मन पर धरे तो समाजको छोड़ दे सकता है। मगर समाजका घेरा संकीर्ण न होगा तो समाजके नियम और नीति न्यायके अनुगामी होना ही संभव है। क्योंकि इसके विपरीत होनेसे बहुसंख्यक लोगोंके द्वारा उस नियम या नीतिका अनुमोदन नहीं हो सकता। समाजबन्धन और सामाजिक नियम लोगोंकी इच्छाके अनुगामी होनेहीके कारण जनसाधारण उनका इतना संमान करते हैं।
सामाजिक नीति । सामाजिक नीतियाँ पृथक पृथक् समाजों में अनेक प्रकारकी हैं। उनमें कुछ नीतियाँ सभी समाजोंमें ग्राह्य हैं, और उन्हें साधारण समाजनीति कहा जा सकता है। और, कुछ नीतियाँ खास समाजोंमें ग्राह्य हैं, और उन्हे विशेषसमाजनीति कहते हैं । मनुष्य मनुष्यमें परस्पर न्यायसंमत व्यवहार
(१)" Association of all Classes of all Vations " नामकी एक सभा Robert Owen ने इंगलेंडमें, १८३५ई० में स्थापित की थी। Socialism शब्दका व्यवहार पहले पहल उसीकी कार्यप्रणाली में हुआ था। Encycloraedia Britannica, Dth Ea, ToI XXII, Article Socialism देखो।