________________
तीसरा अध्याय ] पारिवारिक नीतिसिद्ध कर्म।
२७५
जो लोग लड़की-लड़कोंको पिता-माताका धर्म छोड़कर दूसरा धर्म स्वीकार करनेके लिए उपदेश या उत्साह देते हैं, उनका उद्देश्य धर्मप्रेरित होने पर भी, उनका वह कार्य अनेक रूपसे अनिष्टकर ही है । जिन्हें धर्मपरिवर्तनकी प्रवृत्ति दी जाती है उनकी स्वेच्छाचारिता प्रश्रय पाकर बढ़ जाती है। उनकी पितृमातृभक्ति, नष्ट चाहे न हो, लेकिन घट जरूर जाती है, जिससे भक्तित्तिके पूर्ण विकासमें बाधा पड़ती है। मा-बापके नाराज होनेसे, या अलग हो जानेसे, उनकी रक्षा, देख-रेख और विद्याशिक्षामें विघ्न पड़ता है। उनके इस कार्यसे उनके मा-बापके मनमें नानाविध असुख और आशान्ति उपस्थित होती है । इस समय जो हिन्दू-बालकोंमें पिता-माता शिक्षक आदिके प्रति भक्तिका अभाव या कमी देख पड़ती है उसका एक कारण शायद यह भी है कि उन्हें जो शिक्षा मिलती है वह उनके मनमें मा-बापके धर्म अर्थात् हिन्दूधर्म पर अश्रद्धा पैदा कर देती है। __ यह कहनेकी कोई आवश्यकता नहीं जान पड़ती कि सन्तान योग्य हो तो उसका कर्तव्य है कि यथाशक्ति पितामाताकी भलाई और सेवा करे । ४-जातिवन्धु आदि अन्यान्य स्वजनोंके सम्बन्धमे कर्तव्यता।
इस विषयमें अधिक बातें कहनेका प्रयोजन नहीं है। शायद इतना ही कहना यथेष्ट होगा कि सम्बन्ध और व्यवहारकी घनिष्टताके अनुसार जिसे जहाँतक भक्ति, स्नेह और शारीरिक तथा आर्थिक सहायता पानेकी न्यायसंगत आशा हो सकती है, उसकी आशाको यथाशक्ति वहाँतक पूर्ण करना सर्वथा कर्तव्य है। अपनी अवस्था अपेक्षाकृत अच्छी हो तो ऐसा व्यवहार करना चाहिए कि स्वजनोंमेंसे कोई अपनेको घमंडी न समझे। अगर अपनी अवस्था बुरी हो तो ऐसा व्यवहार करना चाहिए कि कोई अपनेको असंगत उपकारकी प्रत्याशा रखनेवाला न समझे।