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ज्ञान और कर्म।
[प्रथम भाग
ज्ञाता अर्थात् मैं कौन हूँ, और ज्ञाताका अर्थात् मेरा स्वरूप क्या है ? इस प्रश्नका उत्तर पहले अपनहीसे पूछना चाहिए। अपने आत्मासे इसका जो उत्तर मिले उसकी यथार्थताकी परीक्षाके लिए बादको युक्तिके साथ और अपने सिवा अन्यके वाक्य और कार्यके साथ मिला लेना आवश्यक है।
इस परीक्षाको प्रयोजनीयताके संबंधमें इस जगह पर आनुषंगिक रूपसे दो-एक बातें कहना कर्तव्य है । जब सभी ज्ञान आत्मामें अवभासित होते हैं और आत्मा ही जब सब ज्ञानोंका साक्षी है, तब अन्तर्दृष्टिके द्वारा आत्मामें हम. जो देख पाते हैं उसकी फिर परीक्षा क्या है, यह आपत्ति सहज ही उठ सकती है। इसके साथ ही यह भी कहा जा सकता है कि आत्मा जो गवाही देता है उसके ऊपर सन्देह करनेसे संदेहके ऊपर भी सन्देह होता है। किन्तु इन आपत्तियोंका खण्डन भी सहज है। अशिक्षित आँख जैसे बहिर्जगत्की वस्तुओंके आकार प्रकारको सब जगह ठीक नहीं देख पाती, वैसे ही अनभ्यस्त अन्तर्दृष्टि भी आत्मामें अवभासित ज्ञानकी यथार्थ उपलब्धिमें समर्थ नहीं होती। और, बहिर्जगत्का साक्षी जैसे मिथ्यावादी न होने पर भी भ्रमवश ठीक बात नहीं कर सकता, वैसे ही आत्मा भी, अन्तर्जगत्के विषयोंके सम्बन्धमें एक मात्र विश्वस्त साक्षी होने पर भी, असावधानतावश अयथार्थ साक्षी दे सकता है। इसी कारण आत्माके उत्तरकी यथार्थताकी परीक्षा करना आवश्यक है। __ अब देखना चाहिए, 'मैं कौन हूँ ?' इस प्रश्नका उत्तर आत्मासे क्या मिलता है। पहले तो यह जान पड़ेगा कि आत्मा कहता है, यह सचेतन देह ही मैं हूँ। लेकिन जरा सोचकर देखनेसे ही इस बारेमें सन्देह उत्पन्न होगा कि यह उत्तर ठीक है या नहीं। कारण दम भर बाद आत्मा ही कहता है कि यह देह मेरी है, अतएव यह देह मैं नहीं हूँ- मैं इस देहका अधिकारी हूँ। अन्तर्दृष्टिके द्वारा हम यह भी देख पाते हैं कि आत्मा देहका शासन करनेकी चेष्टा करता है, बस इसीसे सिद्ध है कि यह देह आत्मा अर्थात् 'मैं' के सिवा अन्य पदार्थ है । यद्यपि आत्माका बाह्य जगत्के साथ सब सम्बन्ध देहके. ऊपर निर्भर है, और बाह्य जगत्के विषयका सब ज्ञान देहकी सहायतासे ही पाया जाता है, विचारके कार्यसे भी देहकी अवस्था बदल जाती है और देहकी अवस्था बदलनेसे विचार-कार्यका व्यतिक्रम होता है, तो भी आत्माके अस्तित्वके लिए देहके साथ उसके संयोगका प्रयोजन नहीं है।