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पहला अध्याय ]
ज्ञाता।
न स्वीकार ही की जा सकती है। मैं, अर्थात् ज्ञाता कौन है और उसका स्वरूप क्या है, यह न जानकर और जाननेकी चेष्टा न करके, ज्ञान और ज्ञेय पदार्थकी आलोचना कभी युक्तिसिद्ध नहीं हो सकती । ज्ञान जो है सो ज्ञाताकी ही एक दूसरी अवस्था है । कमसे कम ज्ञाताका स्वरूप कुछ भी जाना हुआ न होने पर, उससे प्राप्त ज्ञान और उसके द्वारा की गई ज्ञेय पदार्थकी आलोचना भ्रान्त या वृथा न होगी, यह बात कौन कह सकता है ? अपनी दर्शनेन्द्रियके दोषके कारण मैं अगर वस्तुके यथार्थ वर्ण या आकार देख न पाऊँ, तो मेरी आँख ( दर्शनेन्द्रिय) के द्वारा प्राप्त ज्ञान भ्रान्त है, और वह संशोधनके विना ग्रहण करनेके योग्य नहीं है। इसी लिए यथासाध्य ज्ञाताके स्वरूपका निर्णय करना हमारा अवश्य कर्तव्य है। कमसे कम जब तक यह निश्चित न हो कि ज्ञाताके लिए यद्यपि अन्य विषय ज्ञेय हैं तथापि उसका आत्मस्वरूप अज्ञेय है, तब तक आत्मज्ञानके लाभकी चेष्टासे कभी नहीं निवृत्त रहा जा सकता, अर्थात् आत्मज्ञान लाभकी चेष्टा नहीं छोड़ी जा सकती। इस बातको कोई सहज ही अस्वीकार नहीं कर सकता कि ज्ञाता ही अपना प्रथम और प्रधान ज्ञेय है।
बहिर्जगत्की विचित्रता हमारे चित्तको इतना अपनी ओर आकृष्ट करती है, और बहिर्जगत्के पदार्थों के ऊपर हम लोगोंका दैहिक सुख इतना निर्भर है कि बाह्य जगत्को लेकर ही हमारा अधिकांश समय बीत जाता है। लेकिन उस विचित्रताका अस्थायी होना और उस सुखकी अनित्यता जब जब मनुज्यकी समझमें आई है तब तब वह आत्मज्ञान प्राप्त करनेके लिए व्याकुल हो उठा है। हमारे उपनिषद आदि शास्त्रों में इस व्याकुलताके अनेक उदाहरण पाये जाते हैं। छांदोग्य उपनिषद्म श्वेतकेतुका उपाख्यान और नारदसनत्कुमार संवाद और बहदारण्यक उपनिषदमें मैत्रेयीका उपाख्यान इसके लिए देखना चाहिए । ग्रीस देशके बुद्धिमान् विद्वानोंने भी आत्माके स्वरूपका निर्णय करनेके लिए विशेष व्यग्रता दिखलाई है। इस सम्बन्धमें -सुकरातके शिष्य प्लेटोका 'फिडो' नामका ग्रंथ देखना चाहिए।
छांदोग्य अध्याय ६।। छांदोग्य अध्याय ७ । बृहदारण्यक अध्याय २ ।