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पहला अध्याय ]
ज्ञाता।
यह बात परीक्षा करके देखना आवश्यक है कि आत्माकी यह उक्ति ठीक है या नहीं। कारण, इसके विरुद्ध बहुत सी बातें कही जा सकती हैं। पहले तो अनेक लोग कह सकते हैं कि स्पन्दन आदि बाह्य किया जैसे जीवित देहके लक्षण हैं, वैसे ही चिन्तन आदि आन्तरिक क्रिया भी जीवित देहके लक्षण हैं, और उसका प्रमाण यह है कि जिन विवेक आदि शक्तियोंको आत्माकी चैतन्यमय शक्ति कहा जाता है, उनका भी देहकी वृद्धिके साथ क्रमशः विकास
और देहके क्षयके साथ क्रमशः -हास होता है। और भिन्न भिन्न जातिके जीवोंकी ओर मन लगाकर ध्यान देनेसे भी यही प्रतीत होता है; क्योंकि हम देख पाते हैं कि जिस जातिके जीवकी देह अर्थात् मस्तिष्क और देखने सुनने आदिकी इन्द्रियाँ जितना विकासको प्राप्त हैं, उस जातिके जीवका चैतन्य भी उतना ही विकासको प्राप्त है। दूसरे, यह भी कहा जा सकता है कि देहको छोड़ देनेसे आत्माके अस्तित्वका कोई प्रमाण नहीं पाया जाता। अतएव आत्मा और आत्म-ज्ञान, ये दोनों जीवित देहके लक्षण मात्र हैं। __ इस संशयको दूर करना बिल्कुल सहज नहीं है। इसे मिटानेके लिए जो युक्तियाँ और तर्क हैं वे संक्षेपसे नीचे लिखे जाते हैं___ स्पन्दन आदि जो क्रिया या गुण सजीव देहके होते हैं वे सजीव जड़के लक्षण हैं। वे चिन्तन आदि क्रिया या गुणोंकी तरह नहीं हैं; बिल्कुल दूसरे ही ढंगके हैं। स्पंदन आदि क्रियाओंमें जो स्पंदनको प्राप्त होता है, अर्थात् हिलता डुलता है, उसमें आत्मज्ञानके रहनेका कोई प्रमाण नहीं पाया जाता। किन्तु चिन्तन आदि विषयोंमें चिन्तितके आत्मज्ञानका होना सर्वथा निश्चित है। अतएव यह अनुमान नहीं किया जा सकता कि जड़के संयोग या अवस्था परिवर्तनके द्वारा आत्मज्ञान आदि चैतन्यमय गुणोंका या क्रियाओंका उद्भव होता है । अद्वैतवादी होने पर साधारणतः जड़ शब्दका जिस अर्थमें प्रयोग होता है, उस अर्थमें जड़वादी होनेसे काम नहीं चलता, अर्थात् अगर एक ही मूलकारणसे संपूर्ण जगत्की उत्पत्ति माननी है तो वह एक मूलकारण जड़ नहीं माना जा सकता । अगर यह कहा जाय कि जड़में चैतन्य अव्यक्तभावसे निहित रहता है, तो फिर सृष्टिका मूलकारण केवल कोरा जड़ नहीं ठहरा, उसको चैतन्यमय जड़ मानना पड़ा । युक्तिके द्वारा अगर अद्वैतवादका प्रतिपादन करना हो तो 'चैतन्यमय ब्रह्म ही जगत् है' यह वेदान्तका