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________________ २६८ ज्ञान और कर्म। [द्वितीय भाग जातिने जो काम किया है वह उसकी प्रौढ़ अवस्थामें नहीं सोहता । अब भी वही बचपन करना संगत नहीं होगा । फिर काव्यमें भी, उच्च आदर्शचरि में भिन्न भाव देखा जाता है। जैसे-रामचरित्रमें एकतरफ जैसे अतुलनीय बल-विक्रम है, वैसे ही दूसरी तरफ प्रतिद्वन्द्वीके साथ भी असाधारण सौजन्य, कारुण्य और बलप्रयोगमें अनिच्छा है (१)। इसके सिवा वर्तमानकालमें, युद्ध आदिमें भी दैहिकबलकी कार्यकारिता बहुत कम है, बुद्धिबलसे ही सब काम होता है। पण्डितोंका कहना है कि क्रमविकासके नियमानुसार पशुदेह तीक्ष्ण नख-दन्त आदिका लोप होकर क्रमशः मनुष्यशरीरके आकारमें परिणत हुई है । अगर जीवदेहकी ऐसी क्रमोन्नति हो सकती है, तो क्या मानवप्रकृतिकी इतनी भी क्रमोन्नतिकी आशा नहीं की जासकती कि उसकी जिघांसा ( मार डालनेकी प्रवृत्ति) और पाशव बलके प्रयोगकी इच्छा क्रमशः घटती जायगी ? देहका सबल होना सर्वथा वांछनीय है। किन्तु विपत्तिमें पड़े हुएकी रक्षामें और अन्यान्य हितकर कामोंमें ही देहके बलका प्रयोग होना चाहिए । बलका घमंड करके औरके साथ झगड़ा खड़ा करके उसे परास्त करनेके लिए दैहिक बल नहीं होता, कमसे कम उसके लिए होना न चाहिए। इस सम्बन्धमें और एक बात है। आक्रमणकारी पर उसके बदलेमें आक्रमण न कर सकनेको बहुत लोग कायरपन और दुर्बलताका लक्षण समझते हैं। किन्तु जो मनुष्य उसे अन्याय समझकर वैसा कार्य नहीं करता, उसे भीर कहना अनुचित है । जो मनुष्य प्रतिहिंसाप्रवृत्तिके प्रबल प्रलोभनको सँभालकर उससे निवृत्त रह सकता है उसमें, शारीरिक बल चाहे जैसा हो, मानसिक बल असाधारण है, इसमें कोई सन्देह नहीं रह सकता। २-स्वार्थकी अपेक्षा परार्थ बड़ा है । यह बात पुत्रकन्याके मनमें अच्छीतरह बिठा देनेके लिए विशेष यत्न करना भी पिता-माताका कर्तव्य है। ऐसी आशंका करनेका प्रयोजन नहीं है कि स्वार्थके बारेमें यत्न न करनेसे पुत्र-कन्या अपना हित नहीं कर सकेगे। स्वार्थपरता जो है वह मनुप्यकी ऐसी स्वभावसिद्ध प्रबल प्रवृत्ति है कि उसके लुप्त होनेकी संभा (१) संस्कृत भाषा जाननेवाले पाठक इस सम्बन्धमें भवभूतिरचित वीरत्वरित नाटक पढ़कर देखें।
SR No.010191
Book TitleGyan aur Karm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupnarayan Pandey
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1921
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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