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तीसरा अध्याय ] पारिवारिक नीतिसिद्ध कर्म ।
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वना नहीं है। उसकी अत्यन्त अधिकताको रोकनके लिए ही उक्त प्रकारकी शिक्षा आवश्यक है। क्योंकि, क्या व्यक्तिविशेषके, क्या संपूर्ण समाजके, क्या संपूर्ण जातिके सभीतरहके अनिष्टोंकी जड़ असंयत स्वार्थपरता ही है। उस स्वार्थपरताका संयम जिसमें लोग थोड़ी अवस्थासे ही सीखें, इसका उपाय अत्यन्त वांछनीय है। यह बात सभी लोगोंको अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए कि मैं जो चाहूंगा वही पाऊँगा, मेरी ही इच्छा सर्वोपरि प्रबल होगी, इस तरहकी आशा करना अत्यन्त अन्याय है, और ऐसी आशाकासफल होना बिलकुल ही असंभव है। जब कि इस पृथ्वीपर मैं ही अकेला नहीं हूँ, मेरी तरहके और भी अनेक लोग हैं, तब जो कुछ मैं चाहता हूँ वही और लोग भी चाह सकते हैं, और मैं जो इच्छा करता हूँ उसके विपरीत भी और लोग इच्छा कर सकते हैं, और उस परस्परकी आकांक्षा और इच्छाके विरोधका सामञ्जस्य हुए विना संसार नहीं चल सकता । इस तरहके विरोधकी जहाँ संभावना हो, वहाँ हरएक प्रतिद्वन्द्वी ही अगर स्थिर और संयतभावसे यह देखनेका कष्ट उठावे कि उसका न्यायसंगत अधिकार कहाँ तक है, तो फिर विरोध नहीं उपस्थित हो सकता। और, अगर कोई पक्ष अपने स्वार्थका. कुछ अंश अन्य पक्षके अनुकूल छोड़ दे, तो उससे उसकी जो कुछ थोड़ी क्षति होगी, उसकी निर्विरोध भावसे-और इसी लिए शीघ्र ही-कार्य सिद्ध होनेके कारण बहुतसी पूर्ति हो जायगी। ऐसा होनेसे जो मनको शान्ति और सुख मिलेगा उसका भी मूल्य कम नहीं होगा । जो लोग इस तरह कार्य करते. हैं, वे सुखी तो होते ही हैं, बल्कि उन्हें आर्थिक लाभ भी कम नहीं होता।
और, जो लोग अनुचित स्वार्थके वशीभूत होकर विरोध करते हैं, उन्हें विवाद करने में उत्पन्न होनेवाले विकृत उत्साहके सिवा और सुख तो होता ही नहीं, बल्कि लाभका हिसाब करके देखा जाय तो मालूम होगा कि वह भी सर्वत्र अधिक नहीं होता।
३-अपना दोष आप देखना और उसे सहज ही स्वीकार कर लेना उचित है। हमारे दोषको कोई दूसरा दिखा देगा-इसकी अपेक्षा न करके, अपने दोषको खुद देखना और अपने दोषको सहज ही स्वीकार कर लेना उचित है। यह शिक्षा अत्यन्त प्रयोजनीय है, और पुत्र-कन्याको यह शिक्षा देना पिता-माताका कर्तव्य है। हम सबमें कोई भी एकदम दोषशून्य नहीं