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तीसरा अध्याय ] पारिवारिक नीतिसिद्ध कर्म।
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इसीके साथ यह भी याद रखना होगा कि दोष होते ही उसके संशोधन द्वारा क्रमशः पुत्र-कन्याको बुरा काम न करने और भला काम करनेका अभ्यास एकबार करा दे सकनेसे वादको वे उसी अभ्यासके फलसे आपस ही अनायास बुरे कार्यसे निवृत्त और भले काममें प्रवृत्त होंगे, उसमें फिर उन्हें अधिक कष्ट नहीं होगा।
तीसरे, कई एक प्रधान प्रधान नैतिक विषयोंका यथार्थ बोध पुत्र-कन्याको करा देना पिता-माताका अत्यन्त आवश्यक कर्तव्य है। बहुत जगह लोग जान बूझकर बुरा काम नहीं करते, बल्कि इस धारणासे कि मैं अच्छा काम कर रहा हूँ, बुरा काम कर बैठते हैं। यह केवल मूल नैतिक विषयका यथार्थ बोध न रहनेका फल है। जिनमें उक्त प्रकारकी भ्रान्त धारणा होना संभव है, वैसे विषयोंमेंसे कुछ एकका वर्णन आगे किया जाता है।
-देहकी अपेक्षा मन और आत्मा बड़ा है, यह बात बालक बालिकाओंको अच्छीतरह समझा देना आवश्यक है। इस बातको सनझ लेने पर उसके साथहीसाथ यह भी हृदयंगम हो जायगा कि देहके सुखदुःखकी अपेक्षा मन या आत्माके सुख-दुःखपर अधिक दृष्टि रखनी चाहिए। उत्तम आहार और उत्तम पोशाकसे देहको सुख अवश्य होता है, लेकिन उसके लिए अधिक यत्न करनेसे, विद्या-शिक्षा आदि जो मनके लिए सुखकर या हितकर कार्य हैं उनमें बाधा पड़ती है। अतएव वैसा करना अकर्तव्य है। इसके सम्बन्धमें और एक बात है। बहुत लोग कहते हैं, अगर कोई देहके ऊपर प्रहार करनेके लिए उद्यत हो तो मनुष्यदेहकी मयांदा-रक्षाके लिए उस दैहिक अपमान करनेवालेपर प्रहार करना कर्तव्य है । किन्तु वे भूल जाते हैं कि बिल्कुल ही आत्मरक्षाके लिये लाचार होनेके सिवा केवल मानरक्षाके लिए, प्रहार करनेके लिए उद्यत आदमी पर भी प्रहार करना उचित नहीं है। कारण, अगर वह खुद विवेकशन्तिसंपञ्च है तो वह प्रतिपक्षी पर प्रहार करके खुद अपने मन और आत्माका अपमान करता है। इस तरह मानरक्षाके लिए मार-पीट करनेसे मनुष्यके विवेकका गौरव नष्ट हो जाता है । सच है कि साहित्यमें अनेक स्थानोंपर प्रतियोगीके ऊपर पाशव बलके प्रयोगकी प्रशंसा हुई है। किन्तु वे सब प्रायः मनुष्यजातिकी प्रथम अवस्था अर्थात् वाल्यावस्थाकी ही बातें हैं । लड़कपनमें मनुष्य