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ज्ञान और कर्म।
[द्वितीय भाग
उन्होंने अपने बालक पुत्रसे कई वार पूछा कि जब तू स्कूल जाता है तब राहमें क्या वह मजदूर मिलता है ? अगर वह मिले तो उससे कहना, आकर नींबू ले जाय ।" एक साधारण आदमीको एक कड़ी बात कहनेसे माताकी ऐसी आन्तरिक व्यथा और व्यग्रता देखकर उस बालकके मनमें अवश्य ही यह ध्रुव-धारणा हुई होगी कि किसीसे भी कटु या कठोर बात न कहनी चाहिए। वैसी धारणा कभी जानेकी नहीं, और केवल उपदेशके द्वारा जो नीतिकी शिक्षा दी जाती है उसके द्वारा ऐसी धारणा उत्पन्न भी नहीं हो सकती। इसीके साथ यह भी याद रखना चाहिए कि जैसे अन्यके प्रति अच्छा व्यवहार करना पिता-माताका कर्तव्य है, वैसे ही पुत्रकन्याके साथ भी अच्छा व्यवहार करना उनका कर्तव्य है। लड़की-लड़कोंको मिथ्या भय या मिथ्या-लोभ दिखाकर किसी कार्यमें प्रवृत्त करना कभी उचित नहीं है। ऐसा करनेसे मिथ्याव्यवहारके ऊपर समुचित अश्रद्धा उनके हृदयमें नहीं उत्पन्न होती। पुत्र-कन्याको कोई चीज देनेके लिए कहे तो ठीक समय पर उन्हें वह चीज दे देनी चाहिए । नहीं तो पिता-माताकी बात पर उनका दृढ़ विश्वास नहीं रहेगा।
दूसरे, पुत्र-कन्याका कोई दोष देखकर तत्काल उसका संशोधन करना भी पिता-माताका कर्तव्य है। ऐसा न करनेसे उन्हें दोषकी बात करनेका अभ्यास हो जाता है, और पीछे उसका संशोधन कठिन हो जाता है । जैसे रोगके प्रथम उपक्रममें ही उसकी चिकित्सा करना आवश्यक होता है, वैसा न करनेसे बादको रोग असाध्य हो उठता है, वैसे ही दोषका भी संशोधन पहलेहीसे न किया गया, तो बादको उसका संशोधन दुःसाध्य हो जाता है। मगर तीव्र तिरस्कारके साथ दोषके संशोधनकी चेष्टा करना उचित नहीं है। ऐसा किया जायगा तो दोषी अपने दोषको छिपानेकी चेष्टा करेगा, और दोषके संशोधनको सुखकर नहीं समझेगा । स्नेहके साथ मधुर उपदेशके वचनों द्वारा दोषका संशोधन करना कर्तव्य है, और यह समझा देना आव-- श्यक है कि इस दोषका फल ऐसा अशुभ है। ऐसा करनेसे पुत्र या कन्याके मनमें यह विश्वास जम जायगा कि इस दोषके कामको न करना केवल पितामाताकी आज्ञा माननके लिए आवश्यक नहीं है, बल्कि अपने हितके लिए भी आवश्यक है । और, यह विश्वास ही अन्याय कार्यसे निवृत्तिको बद्धमूल करनेका प्रधान उपाय है।