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तीसरा अध्याय ] पारिवारिक नीतिसिद्ध कर्म ।
आध्यात्मिक शिक्षा नीतिशिक्षा ।
आध्यात्मिक शिक्षा के दो भाग हैं— नीतिशिक्षा और धर्मशिक्षा | नीतिशिक्षाका प्रयोजन होनेके बारेमें कोई मतामत नहीं है—उससे सभी सहमत हैं । हाँ इस बारेमें मतभेद है कि वह शिक्षा किस प्रणालीसे देनी चा हिए। उन सब मतामतोंकी आलोचना करना यहाँका और इस समयका उद्देश्य नहीं है । पुत्र-कन्याकी नीतिशिक्षाके लिए जैसा काम करना पितामाताका कर्तव्य जान पड़ता है, उसके सम्बन्धकी दो चार मोटी मोटी बातें संक्षेपमें इस जगहपर लिखी जाती हैं ।
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पुत्र-कन्याकी नीतिशिक्षा के लिए पिता-माताका प्रथम कर्तव्य यह है कि वे इस तरहसे अपना जीवन बितावें कि उनका दृष्टान्त ही सन्तानको नीतिकी शिक्षा दे | ऐसा हुए विना, उनके या अन्य किसी शिक्षकके मौखिक उपदेशसेकुछ विशेष काम नहीं होता । अनेक स्थलोंमें, अनेक कारणोंसे, अन्तको पुत्रकन्या अपने पिता-माताकी अपेक्षा भले होते हैं, या बुरे होते हैं । किन्तु प्रायः यह देखा जाता है कि वे पहले पिता-माताकी रीति-नीतिके अनुसार ही चलना सीखते हैं । और, वह रीतिनीति अगर उच्च आदर्शकी हुई, तो उनकी सुनीतिशिक्षा सुगम होती है । एक साधारण उदाहरण दूंगा। किसी समय एक घरमें एक लकड़ीका गट्ठा लानेवाला मजूर आया और वह जब लकड़ीका गट्ठा रख चुका तब आँगनमें फल भारसे झुके हुए नींबू के पेड़को देखकर उसने घरकी मालकिनसे कहा – “ मालकिन, इस पेड़में खूब फल लगे हैं। मैं एक ले लूँ ? 25 घरकी मालकिन बड़ी ही धर्मपरायणा थीं, उनका हृदय भी कोमल था । किन्तु किसी कारणसे उस समय उनका मन खराब हो रहा था । इसीसे उन्होंने कुछ कड़े स्वरमें कहा - " खूब ! फकीर आता है वह भी नींबू माँगता है, और मुटिया-मजूर आता है वह भी नींबू मागता है ! अच्छा नाकमें दम कर रक्खा है ! " यह उत्तर सुन कर लकड़ियोंके पैसे लेकर वह मजूर और कुछ कहे विना दुःखित भावसे चला गया । कुछ देर बाद घरकी मालकिनका वह भाव जाता रहा । तब उन्होंने पछताकर बहुत ही दुःखित हो कर कहा—“ क्यों मेरी ऐसी कुबुद्धि हुई ? क्यों मैंने बेकार उस गरीबको झिड़क दिया ? वह अगर एक नींबू ले ही लेता तो क्या हानि हो जाती ? " उसके बाद दो-तीन दिन तक लगातार वे यही कहती रहीं ।