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ज्ञान और कर्म ।
[ द्वितीय भाग
लिखी बातोंका ठीक ठीक पालन कर सकनेसे अतिभोजन, आलस्य और उनसे होनेवाले तरह तरहके रोगों और कष्टोंसे सन्तान बची रहेगी ।
शारीरिक शिक्षा सम्बन्धमें और एक कठिन बात है । जवानीके प्रारंभ में जो इन्द्रिय अति प्रबलभाव धारण करती है, उसकी तृप्तिके लिए अनेक जगह युवक लोग अवैध उपायोंको काममें लाते हैं, और उसका फल अतीव अनिटकर होता है । उस अनिष्टको रोकनेके लिए पितामाताका क्या कर्तव्य है ? इस बारेमें स्पष्ट उपदेश देनेमें केवल लज्जा और शिष्टाचारकी ही बाधा नहीं है, सत्युक्ति भी उसका विरोध करती है । कारण, उस बारेमें उपदेश देनेसे जिन सब बातोंका उल्लेख करना होता है वे भी कुछ कुछ चित्तको विचलित और इन्द्रियतृप्तिकी प्रवृत्तिको उत्तेजित कर सकती हैं । इस गुरुतर अनिष्टको रोकने के दो ही उपाय जान पड़ते हैं ।
एक तो युवकोंको पढ़नेके लिए साधारण देहत्तत्त्वविषयक सरल और संक्षिप्त ग्रंथ देना है। इस तरहके ग्रन्थ अगर युवकोंके विद्यालयकी पाठ्यपुस्तकों में रक्खे जासकें तो और भी अच्छा हो । एक ही इन्द्रियके सम्बन्ध में खास उपदेश सुननेसे, अथवा कोई खास ग्रंथ या ग्रंथका अंश पढ़नेसे, उस इन्द्रियकी ओर मनके आकृष्ट होनेकी जैसी अशंका रहती है, वैसी आशंका साधारण देहतत्त्वविषयक ग्रंथ पढ़नेसे, अथवा विद्यालयका पाठ्यविषय समझकर उस ग्रंथको पढ़नेसे, नहीं रहती । और, वैसे ग्रंथ में अगर इन्द्रि - यकी अवैधतृप्तिका कुफल साधारण भावसे वर्णन किया गया हो, तो उसे पढ़ना लज्जाकर या अन्य किसीतरह बाधाजनक नहीं जान पड़ता ।
दूसरे, युवकोंको एक ओर कसरतमें, दूसरी ओर पढ़ने-लिखने में और अन्यान्य ऐसे ही कामोंमें इस तरह लगा रखना चाहिए कि वे लोग अवैध इन्द्रियतृप्तिके विषयको सोचनेके लिए समय ही न पावें । साथ ही उन्हें इन्द्रियतृप्तिकी प्रवृत्तिको उत्तेजना देनेवाला कोई नाटक - उपन्यास आदि ग्रंथ पढ़ने देना, अथवा वैसा ही नृत्य अभिनय आदि देखनेके लिए जाने देना भी उचित नहीं है। युवकोंके लिए विलासिताका वर्जन और कुछ कठोर होने पर भी ब्रह्मचर्यव्रतधारण सर्वथा विधेय और श्रेयस्कर है ।
मानसिकशिक्षा के बारेमें, इस पुस्तकके प्रथम भाग में, 6 ज्ञानलाभके उपाय' शीर्षक अध्याय में, जो कुछ कहा जा चुका है, उससे अधिक और कुछ यहाँपर कहनेका प्रयोजन नहीं है ।