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तीसरा अध्याय ] पारिवारिक नीतिसिद्ध कर्म ।
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कोई कोई कहते हैं, कि घरमें पिता-माताकी देख-रेखमें रहनेकी अपेक्षा विद्यालयके छात्रनिवासमें, शिक्षककी देखरेखमें, रहना चरित्रगटनके लिए अधिक उपकारक है। किंतु छात्रकी बहुत थोड़ी अवस्थाम वसा होना किसी तरह संभव नहीं है । और, किसी अवस्थामें भी उसके संभवयर होने में सन्देहके लिए बड़ी गुंजाइश है। बहुत लोग कहते हैं,प्राचीन भारतमें छात्रोंक गुरुगृहनिवासका बहुत अच्छा फल होनेके बारेमें कोई कुछ सन्देह नहीं करता, तो फिर वर्तमान समयमें शिक्षकोंके तत्त्वावधानमें बोडिंगहाउसमें रहनेका वैसा ही अच्छा फल क्यों नहीं होगा? किन्तु प्राचीन भारत में जो गुरुगृहनिवासकी प्रथा थी उसमें और वर्तमानकालकी विद्यालयके अन्तर्गत छात्रालयमें रहनेकी प्रणा. लीमें बहुत बड़ा अन्तर यह है कि उस समय छात्र गुरुभक्तिके बदलेमें गुरुका स्नेह और उनके घरमें रहनेकी अनुमति प्राप्त करते थे, और इस समय छात्र धनके बदले में छात्रनिवासमें रहने पाते हैं। भक्ति और स्नेहके परस्पर विनिमयके फलके साथ धन और आहार-निवास आदिके विनिमयका फल किसी तरह तुलनीय नहीं है। अपने घरमें रहनेसे जैसा चित्तवृत्तिका स्वाधीनभावसे विकास और संसारयात्रानिवाहके लिए उपयोगी शिक्षाका लाभ होता है, वह छात्रालयमें रहनेसे कभी नहीं हो सकता । अतएव अत्यन्त प्रयोजन या लाचारी हुए बिना, केवल अपने नित्यकी देखरेखके परिश्रमको बचानेके लिए पुत्र-कन्याको छाननिवासमें रखना पिता-माताका कर्तव्य नहीं है।
शारीरिक शिक्षा। ऊपर कहा गया है कि शरीररक्षाके लिए उपयोगी शिक्षा सबसे पहले आवश्यक है। उस शिक्षाके भीतर कुछ व्यायाम ( कसरत) भी आ जाता है, किन्तु केवल व्यायाम ही वह शिक्षा नहीं है। कुछ एक शारीरिक नियमोंका स्थूलतत्त्व, और उसके लंघनके कुफल, बता देना ही उस शिक्षाका प्रधान अंग है। ये सब बातें पुत्र-कन्याके मनमें अच्छीतरह बिठा देनी चाहिए कि आहार केवल रसनाकी तृप्तिके लिए नहीं किया जाता, वह देहकी रक्षा
और पुष्टि के लिए आवश्यक है, अतएव भोजनके पदार्थ केवल मुखरोचक होनेसे ही काम नहीं चलेगा, वे निर्दोष और पुष्टिकर होने चाहिए, और निद्रा तथा विश्राम केवल आरामके लिए नहीं, स्वास्थ्यके लिए आवश्यक है, और इसी लिए वह यथासमय और उचित मात्रामें ही होना चाहिए। ऊपर