________________
ज्ञान और कर्म।
[ द्वितीय भाग
पूँजी है। जीवनयात्राको बहुत अच्छी तरह निबाहनके लिए जो आयोजन (तैयारियाँ) आवश्यक हैं उन सबका एकमात्र उपाय शिक्षा ही है। शरीर, मन और आत्मा, ये तीनों पहले अपूर्ण रहते हैं, और इन तीनोंको पूर्ण बनाना आवश्यक है। इस लिए शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक, तीनों तरहकी शिक्षा देनी चाहिए। इनकी आवश्यकताके तारतम्य (न्यूनाधिकता) के अनुसार इनमेंसे हरएक तरहकी शिक्षाके लिए यत्न करना पिता-माताका कर्तव्य है।
शरीरकी रक्षा सबसे पहले आवश्यक है। अतएव शरीररक्षाके लिए जो शिक्षा आवश्यक है उसके लिए सबसे पहले यत्न करना चाहिए। इसके सिवा कसरत आदिका उतना प्रयोजन नहीं है। मन जो है वह शरीरकी अपेक्षा श्रेष्ठ है, और मानसिक शिक्षा सभीके लिए आवश्यक है। इस लिए शरीररक्षाके लिए उपयोगी शिक्षा देनेके बाद ही मानसिक शिक्षाके लिए यत्न करना उचित है । आत्मा सर्वोपरि है, और आत्माकी उन्नति अत्यन्त आव. श्यक है । इसलिए शरीररक्षाके वास्ते उपयोगी शिक्षाके साथसाथ कुछ आध्यात्मिक शिक्षा भी सभीके लिए प्रयोजनीय है।
___ पुत्रकन्याके शरीर-पालनका भार भृत्यके ऊपर देकर निश्चिन्त होना जैसे पिता-माताके लिए अकर्तव्य है, वैसे ही सन्तानके मन और चरित्रके गठनका भार शिक्षकके ऊपर छोड़ कर निश्चिन्त होना भी उनका कर्तव्य नहीं है । यह सच है कि शिक्षक जो है वह भृत्यकी अपेक्षा बहुत उच्च श्रेणीका आदमी है, और बहुत जगह शिक्षा-कार्यमें पिता-माताकी अपेक्षा अधिकतर योग्य होता है। किन्तु तो भी, उससे पिता-माताकी जिम्मेदारी कम नहीं होती। विद्याशिक्षाके सम्बन्धमें, अगर पिता-माता पढ़े-लिखे नहीं हैं, तो शिक्षकके ऊपर भरोसा करना ही पड़ेगा-ऐसी अवस्थामें उसका होना अनिवार्य है । मगर वैसी अवस्थामें भी, सन्तानकी कैसी उन्नति हो रही है-वह कैसा पढ़ता-लिखता है, इसकी यथाशक्ति खबर रखना पिता-माताका कर्तव्य है । किन्तु मन और चरित्रके गठनके सम्बन्धमें जुदी बात है। पुत्र-कन्याका भला या बुरा किस बातसे होता है, यह हिताहितका ज्ञान, शिक्षककी अपेक्षा मा-बापको कम नहीं होता, और उनके शास्त्रलब्ध ज्ञानका अभाव रहने पर भी उनकी स्नेह-प्रेरित व्यग्र शुभचिन्तकता उस अभावकी पूर्ति कर देती है