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तीसरा अध्याय ] पारिवारिक नीतिसिद्ध कर्म ।
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त्सक लोग क्यों रोगीके अभिभावकोंसे भी अपनी सलाह छिपा रखते हैं। ऐसा न करना ही अच्छा है।
सन्तानकी शिक्षा । ___ पाँच वर्षकी अवस्था तक सन्तानका लालन-पालन ही करना उचित है। उसके बाद उनकी शिक्षा शुरू कर देनी चाहिए । चाणक्य लिखते हैं
लालयेत् पंचवर्षाणि दशवर्षाणि ताड़येत् ।
प्राप्ते तु षोड़शे वर्षे पुत्रे मित्रवदाचरेत् ॥ __ अर्थात् पाँच वर्ष तक लालन-पालन और दस वर्षतक ताड़ना उचित है। इसके बाद जब पुत्रकी अवस्था पूरी सोलह वर्षकी हो जाय तब उसके साथ मित्रका ऐसा व्यवहार करना चाहिए।
मोटे तौर पर यह नीति युक्तिसिद्ध भी है। पाँच वर्षकी अवस्था तक प्रधान रूपसे इसी पर दृष्टि रखनी चाहिये कि बच्चेका शरीर सुगठित और सबल हो। परन्तु मेरी समझमें यह सलाह ठीक नहीं है कि उस अवस्थामें बच्चेको बिल्कुल ही शिक्षा न दो, या जरा भी शासन न करो। हाँ, उस समय ऐसी कोई शिक्षा मत दो जिसमें बालकको क्लेश या श्रम जान पड़े। छः से लेकर पंद्रह वर्षकी अवस्थातक बालकको शासन ( दबाव ) में रक्खो, अर्थात् उसकी विद्याशिक्षा और चरित्रगठन पर ही विशेष दृष्टि रक्खो । हाँ, यह कहना भी संगत नहीं कि उस समय उसका लालन-पालन करो ही नहीं। और, यह बात भी ठीक नहीं है कि सोलह वर्षकी अवस्था होते ही फिर पुत्रको शिक्षा मत दो। हाँ, उस समयसे फिर शासनके ढंगसे शिक्षा मत दो, मित्रकी तरह उपदेशके द्वारा शिक्षा दो । केवल पुत्रहीको शिक्षा देना कर्तव्य नहीं है, कन्याको भी शिक्षा देनी चाहिए। मगर हाँ, शिक्षा जब जीवनयात्राकी पूँजी मानी गई है तब जिसे जिस ढंगसे अपना जीवन बिताना होगा उसे उसीके उपयोगी शिक्षा मिलनी चाहिए, यह बात याद रखकर पुत्र और कन्याकी शिक्षाका प्रबंध करना कर्तव्य है।
शिक्षा तीन तरहकी होती है
शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक । __ पुत्र-कन्याकी शिक्षाके सम्बन्धमें स्मरण रखना चाहिए कि शिक्षाका अर्थ केवल विद्या-शिक्षा ही नहीं है। अपर कहा गया है कि शिक्षा जीवनयात्राकी