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तीसरा अध्याय ] पारिवारिक नीतिसिद्ध कर्म ।
प्रति अनुराग बढ़ता रहता है। सच है कि माता-पिताका स्नेह स्वभावसिद्ध हुआ करता है, किन्तु अवस्था भेदसे उसमें कमी बेशी भी हो जाती है। उच्च प्रकृतिकी बात मैं नहीं कहता, किन्तु सर्वसाधारण के लिए संसारमें सभी विषय लेनदेनके नियम के अधीन हैं, और पुत्र-कन्याकी भक्ति तथा पिता-माताका स्नेह भी उस नियमके बाहर नहीं है। लोगोंकी अिभाव देखकर जब कोई क्षोभके साथ कहते हैं कि " इस समयके लड़के कलिकालके लड़के टहरे, कहाँ तक अच्छे होंगे, " तब मैं मन ही मन कहता हूँइस समय के माता-पिता क्या कलिकालके माता-पिता नहीं हैं ? वे और कितने अधिककी आशा करते हैं ? " माता या पिता अगर सन्तानको वचपनमें दास-दासीकी देखरेख में रखकर निश्चिन्त होते हैं, तो उनकी वह सन्तान अगर उन्हें बुढ़ापे में नौकरोंके जिम्मे रखकर उनकी सेवासे निश्चिन्त हो जाय, तो इसमें विचित्र क्या है ?
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रोग चिकित्सा और सेवा ।
पुत्र-कन्या के पीड़ित होने पर यथोचित चिकित्सा और सेवा आवश्यक है । इस बारेमें अपत्यस्नेह ही यथेष्ट उत्तेजक और पथप्रदर्शक है । अतएव इस जगह पर अधिक कुछ कहने की जरूरत नहीं है। हाँ, जिन दो-एक बातोंको लेकर लोगोंको सहज ही भ्रम हो सकता है, केवल उन्हींका उल्लेख करूँगा । बहुत जगह पहले रोग अति सामान्य भाव धारण करता है, लेकिन पीछे गुरुतर हो उठता है । इस कारण रोगको साधारण समझकर कभी उसकी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। पहलेसे ही यथाशक्ति अच्छे चिकित्सकको दिखाना और उसकी व्यवस्थाके अनुसार चलना मुनासिव है ( १ ); किन्तु घबराकर अकारण अधिक ओषधका प्रयोग भी उचित नहीं है। एकतरफ जैसे रोगके आरंभ से ही सतर्कताका प्रयोजन है, दूसरी तरफ वैसे ही रोगके अच्छी तरह आराम न होनेतक सतर्क रहना भी आवश्यक है ।
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किस रोग में किस चिकित्सकको दिखायें, यह गृहस्थ के लिए अतिकठिन प्रश्न है । चिकित्सा में खर्च होता है, और सभी लोग सर्वश्रेष्ठ चिकित्सकको रोगी दिखा नहीं सकते | जितनी हैसियत और सुविधा होती है, उसीके
( १ ) इस सम्बन्धमें चरकसंहिताका ग्यारहवाँ अध्याय देखना चाहिए ।