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ज्ञान और कर्म।
[ द्वितीय भाग
प्रथा निन्दनीय नहीं ठहराई जासकती। विधवाओं में ही क्यों, सधवाओं में ही क्या व्यभिचार नहीं है ? किन्तु इस अप्रिय विषयको लेकर इस समय अधिक बात कहना निष्प्रयोजन है । कारण, अब विधवाका विवाह सरकारीआइनके अनुसार सिद्ध है, और जो विधवा चिरवैधव्यपालनमें असमर्थ है वह इच्छा करे तो विवाह कर सकती है। उसके लिए प्रथापरिवर्ततका प्रयोजन नहीं है। चिरवैधव्यप्रथाके विरुद्ध चौथी और शायद अंतिम आपत्ति यह है कि वह प्रथा जबतक प्रचलित रहेगी, तबतक विधवाएँ इच्छानुसार अपना व्याह करनेका साहस नहीं करेंगी; कारण, प्रचलित प्रथाके विरुद्ध कार्य करनेमें सभीको संकोच होता है, और वैसा कार्य जनसमाजमें निन्दित अथवा अत्यन्त अनादृत होता है । अतएव आन्दोलनके द्वारा लोगोंका मत बदलकर, जिसमें यह चिरवैधव्यपालनकी प्रथा उठ जाय वही करना समाजसंस्कारकोंका कर्तव्य है।
जान पड़ता है इसी लिए विधवाविवाह आईनके द्वारा सिद्ध होने पर भी, और उसमें बाधा डालनेका किसीको अधिकार न रहने पर भी, विधवाविवाहके अनुकूल पक्षवाले लोग चिरवैधव्यप्रथाको उठा देनेके लिए इतना यत्न कर रहे हैं । यद्यपि वे सब,अथवा उनमेंसे अधिकांश लोग स्वीकार करते हैं कि अपनी इच्छासे चिरवैधव्यपालन उच्च आदर्श है, तथापि वे चाहते हैं कि उस उच्च आदर्शका पालन प्रथा न होकर प्रथाके व्यतिक्रम स्वरूपसे रहे, और विधवाविवाह ही प्रचलित प्रथा हो। जव इच्छा करनेहीसे बिना किसी बाधाके विधवाका विवाह होसकता है, फिर वे क्यों स्वीकृत उच्च आदर्शकी अनुयायिनी चिरवैधव्यपालनकी प्रथाको उठा देकर विधवाविवाहकी प्रथाको प्रचलित करना चाहते हैं, यह ठीक समझमें नहीं आता। वे चिरकौमारव्रतकी बहुत बहुत प्रशंसा करते हैं, लेकिन चिरवैधव्यप्रथाको उठा देनेके लिए कमर कसे हुए हैं, यह एक विचित्र बात जान पड़ती है। यदि यह प्रथा प्रयोजन या इच्छाके माफिक विधवाविवाहके लिए बाधाजनक होती, तो इसे उठा देनेकी चेष्टाका यथेष्ट कारण होता। किन्तु समाजबन्धन इतना शिथिल है और समाजकी शक्ति इतनी थोड़ी है कि समाजकी प्रथा किसीकी भी इच्छाकी गतिमें रुकावट नहीं डाल सकती। हाँ, यह अवश्य स्वीकार करना होगा कि यद्यपि चिरवैधव्यपालनकी प्रथा, विधवा अगर ब्याह करनेकी इच्छा करे तो उसमें बाधा नहीं डाल सकती, किन्तु विधवाके मनमें वह इच्छा पैदा करने में