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तीसरा अध्याय ] पारिवारिक नीतिसिद्ध कर्म।
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अवश्य रुकावट डालती है। और, इसी कारणसे, यद्यपि विधवाविवाहका आईन पास हुए आधी शताब्दीसे भी अधिक समय बीत गया है, तो भी अबतक साधारणतः हिन्दूविधवाके मनमें विवाहके लिए पहलेकी सी अनिच्छा बनी हुई है, उसमें कोई परिवर्तन नहीं हुआ । तो फिर असल बात यह सिद्ध होती है कि हिन्दूविधवाओंकी व्याहके लिए जो परम्परागत अनिच्छा है उसे दूर करके विधवाविवाहके लिए प्रवृत्ति पैदा करना ही समाजसंस्कारकोंका उद्देश्य है। उससे विधवाओंको कुछ कुछ क्षणभंगुर ऐहिक सुख हो सकता है, किन्तु उसके द्वारा न तो उन्हें कोई स्थायी सुख प्राप्त होगा, और न समाजहीका कोई विशेष कल्याण होगा । पक्षान्तरमें, पहले ही दिखाया जा चुका है कि चिरवैधव्यके पालनमें विधवाओंको निर्मल पवित्र स्थायी सुख मिलता है, और समाजकी भी बहुत कुछ मलाई
और उपकार होता है। आत्मसंयम, स्वाथत्याग, परार्थपरायणता आदि उच्च गुणोंके विकाससे हम अन्यान्य विपयों में मनुष्यकी क्रमोन्नतिका लक्षण मानते हैं, किन्तु विधवाओंके विवाहके विषयमें क्यों उसके विपरीत ढंग पकड़ना चाहते हैं, इसका कारण समझना कठिन है। शायद कोई कोई यह समझ सकते हैं कि पाश्चात्य देशों में विधवाविवाहकी प्रथा प्रचलित है, और उन्हीं सब देशोंने वैषयिक उन्नति अधिक की है, इसी लिए हमारे देश में भी वह प्रथा प्रचलित होनेसे हमारी भी वैसी ही उन्नति हो सकेगी। पहले तो यह बात युक्तिसे सिद्ध नहीं है । बाल्यविधाहके साथ देशकी अवनतिका कार्यकारण-सम्बन्ध रहना संभव भी है, किन्तु विस्वैधव्यपानलके साथ देशकी अवनतिका क्या सम्बन्ध है, सो कुछ समझ में नहीं आता । अगर यह बात ठीक होती कि समानम स्त्रियोंकी अपेक्षा पुरुषों की संख्या अधिक है, और विधवाविवाह प्रचलित न होनेसे पुरुष अविवाहित रह जाते हैं, तथा इसी कारण देशके लोगों की संख्या समुचित रूपसे बढ़ने नहीं पाती, तो भी यह बात समझमें आ सकती थी। किन्तु वास्तवमें हमारे यहाँ पुरुपोंकी अपेक्षा स्त्रियोंकी संख्या अधिक है, अतएव विधवाविवाहप्रथा प्रचलित होने से उसका फल यह होगा कि अनेक कुमारियाँ वर नहीं पावेंगी । इसी कारण यह स्वीकार किये बिना कि पाश्चात्य देशोंकी सभी रीतियोंका आँख मूंदकर अनुकरण करना चाहिए, विधवाविवाह प्रचलित करनेकी चेष्टाका और कोई कारण नहीं देख पड़ता।