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तीसरा अध्याय ] पारिवारिक नीतिसिद्ध कर्म ।
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व्यवस्था है। यह ठीक है कि ब्रह्मचर्य-पालनमें इन्द्रियतालिका आहार विहारादि कुछ दैहिक सुखभोग अवश्य छोड़ने पड़ते हैं, किन्तु उसके बदले में उससे शरीर नीरोग सबल सुस्थ होता है, और मानसिक स्कृति और सहनशीलता उत्पन्न होती है, जिसके फलसे विशुद्ध स्थायी सुख प्राप्त होता है। अतएव ब्रह्मचर्य, पहले कटोर जान पड़ने पर भी, वास्तव में चिरमुखका आकर है। बिना समझे बुझे अदूरदर्शी लोग ब्रह्मचर्यकी निन्दा करते हैं, और बिना जाने ही भारतकी व्यवस्थापक सभाके एक मनस्वी मेंबरने, विधवाविवाह-आईन विधिबद्ध होनेके समय, हिन्दूविधवाके ब्रह्मचर्यपालनको भयंकर बतलाया था। इस सम्बन्धमें और एक कठिन बात है। विधवा कन्या या पुन वधूसे ब्रह्मचर्यपालन कराना हो, तो उसके ना-बार या सासससुरको भी वैसे ही ब्रह्मचर्य-पालन करना चाहिए। किन्तु वह उनके लिए पहले असुखकर होने पर भी परिणाममें शुभकर है, और उनकी कन्या या पुत्रवधुके चिरवैधव्यपालनजनित पुण्यका फल कहा जासकता है। ब्रह्मचर्यपालनमें दीक्षित विधवा अपने सुस्थ सवल शरीरके द्वारा तरह तरहके अच्छे काम करनेका दृद्ध व्रत धारण कर सकती है। जैसे-परिजनवर्गकी सुश्रृपा परिवारके बच्चोंका लालन-पालन और रोगियोंकी सेवा-टहल तथा दवा-पानी देना, धर्मचर्चा, स्वयं शिक्षा प्राप्त करना और परिवारकी अन्य स्त्रियोंको यथासंभव शिक्षा देना । इस प्रकार विधवाका परहितमें लगा हुआ जीवन, तीव्र किन्तु दुःखमिश्रित विषय-सुखमें नहीं, प्रशान्त निर्मल आध्यात्मिक सुखमें, बीत जाता है। यह कल्पनाका असंभव चित्र नहीं है। ऐसे शान्तिमय ज्योतिर्मय पवित्र चित्रने इस समय भी भारतके अनेक घरोंको अपनी दिव्य ज्योतिसे उज्ज्वल कर रक्खा है। मेरी अयोग्य जड़ लोहेकी लेखनी उसके यथार्थ सौन्दर्यको अङ्कित करनेमें असमर्थ है। जिस प्रथाका फल खुद विधवाके लिए और उसके आत्मीय-परिजनवर्गक लिए परिणाममें इतना शुभकर है, उस प्रथाको आरंभमें कठोर देखकर निर्दय कहना उचित नहीं है।
चिरवैधव्यप्रथाके प्रतिकूल तीसरी आपत्ति यह है कि इस प्रथाके अनेक कुफल हैं, जैसे- गुप्त व्यभिचार और गर्भपात । यह नहीं कहा जासकता कि इस तरहके कुफल कभी कहीं फलते ही नहीं। किन्तु उनकी संख्या कितनी है? दो-एक जगह ऐसा हुआ है, या होता है, इसी लिए चिरवैधव्य पालनकी