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ज्ञान और कर्म।
[द्वितीय भाग
चिर-वैधव्य-प्रथाके विरुद्ध दूसरी आपत्ति यह है कि वह अतिनिर्दय प्रथा है-वह विधवाओंकी दुःसह वैधव्य-यन्त्रणा पर दृष्टिपात भी नहीं करती। विधवाकी शारीरिक अवस्था पर नजर डाली जाय तो अवश्य ही स्वीकार करना पड़ेगा कि यह आपत्तिं अत्यन्त प्रबल है। ऐसे दयाहीन हृदय थोड़े ही निकलेंगे जो विधवाओंके शारीरिक कष्टके लिए व्यथा न पाते हों। किन्तु सोचना चाहिए, मनुष्य केवल देहधारी ही नहीं है । मनुप्यके मन और आत्मा भी है, जो कि शरीरकी अपेक्षा अधिक मूल्यवान् और अधिक प्रबल है-देहरक्षाके लिए कई एक अभाव (कमी) अवश्य पूरणीय हैं, किन्तु मन और आत्माके ऊपर देहकी प्रभुताकी अपेक्षा देहके ऊपर मनका और आत्माक अधिकार अधिकतर वांछनीय है। देहका कुछ कष्ट स्वीकार करनेसे अगर मन और आत्माकी उन्नति होती हो तो उस कष्टको कष्ट ही नहीं समझन चाहिए । देहका कष्ट स्वीकार करके बुद्धिके द्वारा प्रवृत्तिका शासन करना और आगे होनेवाले अधिकं सुखके लिए वर्तमानके अल्पसुखके लोभको दबान ये ही दो गुण ऐसे हैं जिनके कारण मनुष्यजाति पशुओंसे श्रेष्ठ समझी जात है, और उसकी उत्तरोत्तर क्रमोन्नति हुई है। पशु भूख लगने पः अपने-परायेका विचार न करके जो सामने पाता है वही खा जाता है असभ्य मनुष्य भी प्रयोजन होने पर अपने परायेका विचार न करके निकर जिस प्रयोजनीय वस्तुको पाता है उसीको ले लेता है । किन्तु सभ्र मनुष्य हजार प्रयोजन होने पर भी परस्वके अपहरणसे पराङ्मुख रहता है, अर्थात् पराई चीजको नहीं छूता । विधवा अगर कुछ दैहिक का स्वीकार करके चिरवैधव्यपालनके द्वारा अधिकतर अपनी आत्माकी उन्नति और पराया हित करने में समर्थ हो, तो उसका वह कष्ट कष्ट ही नहीं है, औ जो लोग उसे वह कष्ट स्वीकार करनेका उपदेश देते हैं वे उसके मित्र ही हैं शत्रु नहीं। चिरवैधव्यपालन करनेमें अन्यान्य सत्कमौकी तरह उसके लिा भी शिक्षा और संयमकी आवश्यकता है। विधवाका आहार व्यवहार संयर ब्रह्मचर्यके लिए उपयुक्त ( सात्विक ) होना आवश्यक है। मछली-मांस आ शारीरिक वृत्तियोंको उत्तेजित करनेवाले आहार, और वेषभूषा विलास विभ्रर आदि मानसिक प्रवृत्तियोंको उत्तेजना देनेवाले व्यवहार त्याग किये विन चिरवैधव्यका पालन कठिन है। इसी कारण विधवाके लिए ब्रह्मचयर्क