________________
तीसरा अध्याय ] पारिवारिक नीतिसिद्ध कर्म ।
२५१
इस प्रथाके प्रतिकूल जो युक्तियाँ पेश की जाती हैं वे नीचे लिखी जाती हैं। पहले तो यह कहा जाता है कि इस प्रथाका फल स्त्रियों और पुरुषोंके प्रति अति विसदृश है। अर्थात् पुरुष स्त्रीके मरने पर फिर व्याह कर सकते हैं, और स्त्रियाँ पुरुषके मरनेपर फिर व्याह नहीं कर सकतीं। इस आपत्तिका उल्लेख और कुछ आलोचना पहले हो चुकी है। पुरुष स्त्रीवियोगके बाद फिर ब्याह करते हैं, इसीलिए स्त्रियाँ भी मर्द के मरने पर फिर व्याह करेंगी, यह एक असंगत प्रतिहिंसा है ! स्वाभाविक नियमके अनुसार स्त्री-पुरुपके अधिकारमें विषमता अनिवार्य है । सन्तान पैदा करने और पालनेमें प्रकृतिने ही पुरुषकी अपेक्षा स्त्रीपर अधिक भार रख दिया है । भ्रूणका निवासस्थान माताके गर्भ में है, बच्चेका आहार माताकी छातीमें है। स्त्रीकी गर्भावस्था या सन्तानकी शैशवावस्था में पतिकी मृत्यु होनेपर दूसरे पतिके ग्रहणमें अवश्य ही विलंब करना होगा। उसके बाद ये सब शारीरिक बातें छोड़ देकर मन और आत्माकी बात देखने में भी स्त्री और पुरुषके अधिकारकी विषमता अवश्य ही रहेगी। और, यह बात मैं पुरुपका पक्षपाती होकर नहीं, स्त्रीका पक्षपाती होकर ही कहता हूँ । पुरुषकी इच्छासे या अनिच्छासे संसारयात्राके निर्वाहके लिए अनेक अवसरोंपर कठोर और निष्ठुर कर्म करने होते हैं, और इसके कारण उसका शरीर और मन निष्ठुर हो जाता है, जिससे आत्माके पूर्ण विकासमें बाधा पड़ती है। स्त्रीको यह कुछ नहीं करना पड़ता । इसीसे उसका हृदय और मन कोमल रहता है। इसके सिवा स्वभावसे ही (जान पड़ता है, सृष्टिकी रक्षाके लिए) स्त्रीकी मति स्थितिशील और निवृत्तिमार्गमुखी होती है। स्त्रीकी सहनशीलता, स्वार्थत्यागकी शक्ति और परार्थपरता पुरुषकी अपेक्षा बहुत आधिक होती है । अतएव उसके लिए स्वार्थत्यागका नियम अगर पुरुषसे सम्बन्ध रखनेवाले नियमकी अपेक्षा कठिनतर हुआ हो, तो समझना चाहिए कि वह उसका पालन करनेमें समर्थ है, इसीसे ऐसा हुआ है । वह नियमकी विषमता उनके गौरवहीका कारण है, लाघवका नहीं। इसी कारण इस जगह उनकी प्रतिहिंसाको मैंने असंगत बतलाया है। जो लोग स्त्रियोंके इस असंगत प्रतिहिंसाको लिए प्रोत्साहित या उत्तेजित करते हैं उन्हें उनका यथार्थ मित्र या हितचिन्तक कहने में सन्देह होता है।