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ज्ञान और कर्म ।
[ द्वितीय भाग
ऊपर हमारे सब कार्य निर्भर हैं । अतएव अगर कोई विधवा चिरवैधव्य के पालन में असमर्थ हो, तो उसकी उस असमर्थताकी जिम्मेदारी केवल उसीके ऊपर नहीं है । उसकी जिम्मेदारी उसके माता-पिताके ऊपर, उसे शिक्षा देनेवालों के ऊपर, और उसके समाजके ऊपर भी है । वह इच्छा करे तो अवश्य ही विवाह कर सकती है, उसमें बाधा डालनेका अधिकार किसीको नहीं है । और वह विवाह, हिन्दूशास्त्र चाहे जो कहे, स्वर्गीय ईश्वरचंद्र विद्यासागर महाशयके उद्योगसे पास हुए सन् १८५६ के १५ वें आईनके अनुसार सिद्ध है । अतएव प्रयोजन होनेपर, विधवाविवाह उचित है कि नहीं यह प्रश्न, अन्य समाजकी तो कोई बात ही नहीं, हिन्दूसमाजमें भी अब उठ नहीं सकता । अब प्रश्न यह है कि विधवाविवाहका सर्वत्र प्रचलित प्रथा होना, और चिरवैधव्यपालनके उच्च आदर्श होने पर भी उसका विधवावि वाहप्रथाके व्यतिक्रमस्वरूपसे रहना उचित है, या चिरवैधव्यपालनका ही सर्वत्र प्रचलित प्रथा होना और विधवाविवाहका चिरवैधव्यपालनके व्यतिक्रमस्वरूपसे रहना उचित है ? अर्थात् चिरवैधव्यपालन मुख्य प्रथा और विध - वाविवाह गौण प्रथा हो, या विधवाविवाह मुख्य प्रथा और चिरवैधव्यपालन गौण प्रथा हो ? इस प्रश्नका ठीक उत्तर क्या है, इसीकी अब विवेचना करनी है ।
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जिन सब देशोंमें विधवाविवाहकी प्रथा प्रचलित है, वहाँ इसके उठ जानेकी कोई संभावना नहीं है । प्रसिद्ध पाश्चात्य पण्डित कास्टी ( Comte ) बहुत दिन हुए, चिरवैधव्यपालनकी श्रेष्ठताका प्रतिपादन कर गये हैं । किन्तु उनके उस कथनसे उक्त पाश्चात्यप्रथामें कोई परिवर्तन नहीं हुआ मगर हाँ, इस समय पाश्चात्यदेशकी स्त्रियाँ अपनी स्वाधीनता स्थापित करनेके लिए जैसा दृढव्रत धारण किये कमर कस कर मैदान में खड़ी हुई हैं, उससे जान पड़ता है, विधावाएँ ही क्यों, कुमारियाँ भी धीरे धीरे विवाहबन्धनमें बंधने में अनिच्छा प्रकट करने लगेंगी । और, वैसा होनेपर शायद उनके उस दृढव्रतका एक फल यह होगा कि पाश्चात्य देशों में भी पवित्र चिरवैधव्यका उच्च आदर्श स्थापित हो सकेगा । किन्तु ये सब बहुत दूरकी
बातें हैं । इस समय निकटकी बात यह है कि हिन्दूसमाजमें जो चिरवैधव्यप्रथा प्रचलित है उसका उठ जाना उचित है कि नहीं ?