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तीसरा अध्याय ] पारिवारिक नीतिसिद्ध कर्म ।
समर्थ हो सकती हैं, या हैं । जो असमर्थ हैं उनके लिए देखने-सुननेवालोंका हृदय अवश्य ही व्यथित होता है। अगर वे दूसरा पति ग्रहण कर लें तो उन्हें मैं मानवी ही कहूँगा, किन्तु जो विधवाएँ चिरवैधव्यका पालन करनेमें समर्थ हैं उन्हें देवी कहना होगा, और अवश्य उन्हींके जीवनको विधवाके जीवनका उच्च आदर्श कहना चाहिए ।
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विधवाविवाहकी प्रथाके अनुकूल और प्रतिकूल युक्तियाँ |
चिरवैधव्यको उच्च आदर्श स्वीकार करके भी अनेक लोग कहते हैं कि वह उच्च आदर्श सर्वसाधारण विधवाओं के लिए अनुसरण योग्य नहीं है— सर्वसाधारण विधवाओंके लिए विधवाविवाहका प्रचलित होना ही उचित " है । इस सम्बन्धमें जो अनुकूल युक्तियाँ हैं उन्हींकी पहले कुछ आलोचना की जायगी ।
इस आलोचनाके पहले ही कुछ बातें स्पष्ट करके कह देना उचित है | विधवाविवाह के बारेमें अबतक जो कुछ मैंने कहा है वह हिन्दूशास्त्र की बात नहीं है, सामान्य युक्तिकी बात है । यह कह देना भी आवश्यक है कि अब भी आगे जो कुछ आलोचना करूंगा वह केवल युक्तिमूलक आलोचना होगी, हिन्दूशास्त्रमूलक आलोचना न होगी । सुतरां यहाँपर यह प्रश्न नहीं उठता कि विधवाविवाह कभी होना उचित है कि नहीं । विश्वैधव्यपालन उच्च आदर्श होनेपर भी यह बात नहीं सोची जा सकती कि उस आदर्शक अनुसार सभी स्त्रियाँ चल सकेंगी या चल सकती हैं। यह अवश्य ही स्वीकार करना होगा कि दुर्बलदेहधारिणी मानवी के लिए प्रथम अवस्थामें वैधव्य कष्टकर है । वह कष्ट कभी कभी, जैसे बालवैधव्यकी हालत में, मर्मविदारक होता है, और विधवा कष्टले सभीके हृदयको व्यथा पहुँचेगी। जो विधवाएँ आध्यात्मिक बलके प्रभावसे उस कष्टको कातर हुए विना सह कर धर्मव्रत में अपना जीवन अर्पण कर सकती हैं, उनका कार्य अवश्य ही प्रशंसनीय हैं जो विधवा ऐसा करनेमें असमर्थ हैं उनका कार्य प्रशंसनीय न होने पर भी उनकी निन्दा करना उचित नहीं है । कारण, हम लोग अवस्थाके अधीहमारे दोष-गुण संसर्गले उत्पन्न हुआ करते हैं । पिता-माताके निकटसे जैसा शरीर और मन ( प्रकृति ) हमने पाया है, और शिक्षा, दृष्टांत व नित्य आहार-व्यवहारके द्वारा वह शरीर और मन जैसा गठित हुआ है, उसीके
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