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ज्ञान और कर्म ।
[द्वितीय भा
__ स्वामीकी इच्छाके अनुगामी होकर चलना स्वीका कर्तव्य है; ऐसा : होनेपर दोनोंका एकत्र रहना असंभव है। ऐसी आशा नहीं की जा सकर्त कि दोनोंकी इच्छा सभी बातोंमें ठीक एक-सी होगी। अतएव उनमेंसे एव दूसरेकी इच्छाका अनुगामी न होगा तो विवाद होना अनिवार्य है । ऐर्स जगहपर, दोनों पक्षोंकी अवस्था पर दृष्टि रखनेसे यही संगत जान जड़ता है कि स्त्री ही स्वामीकी इच्छाके अनुगत होकर चले । स्त्रीकी अपेक्षा पुरुषक शरीर सबल और मन प्रबल है, इस खयालसे मैं यह बात नहीं कहता स्त्रीकी अपेक्षा पुरुषके शरीरमें बल अवश्य अधिक है, किन्तु इसी लिए पुरुषका स्त्रीके ऊपर प्रभुत्व करना, कार्यतः अनिवार्य होने पर भी, न्यायकी दृष्टि से कर्तव्य नहीं ह । पुरुषके मनका बल स्त्रीकी अपेक्षा अधिक हो, तो पुरुषकी प्रधानता न्यायसंगत हो सकती है। किन्तु उस अधिकताके सम्बन्धमें अनेक लोग सन्देह करते हैं, उस सन्देहको मिटाना कठिन है और इस जगह पर निष्प्रयोजन भी है। यहाँपर यहीं तक कहना यथेष्ट होगा कि प्राकृतिक नियमके अनुसार स्त्रीको गर्भधारण और सन्तानपालनके लिए बीच बीच में कुछ दिनके वास्ते अक्षम रहना होता है। पुरुष सभी समय कर्म-क्षम रहते हैं। अतएव कमसे कम इसी कारणसे पारिवारिक कार्यों में पुरुषको प्रधानता देनेकी आवश्यकता है।
मनमाने तौरसे आने-जानेके सम्बन्धमें पुरुषकी अपेक्षा स्त्रीको कम स्वाधीनता है, इस बारे में अनेक कारणोंसे स्त्रीको स्वामीकी ही राय पर चलना चाहिए। उनमेंसे एक प्रधान कारण यह है कि अनेक स्थलोंमें स्त्रीके हिताहितको स्वामी ही अच्छी तरह समझ सकता है। यह स्वाधीनताकी विषमता यथासंभव सीमाके भीतर रहे तो किसी पक्षका अनिष्ट नहीं करती, बल्कि सभीका हित करती है। स्त्री और पुरुष दोनों ही अगर स्वाधीनताके साथ बाहर बाहर घूमते रहें तो घरके कामकाज यत्नपूर्वक देखे सुने नहीं जा सकते । अगर कामकाजका बटवारा किया जाय, तो बाहरके कामोंका भार स्वामीके ऊपर और घरके कामोंका भार स्त्रीके ऊपर रहना ही यथोचित व्यवस्था है। स्त्रीको अनिष्टसे बचानेके लिए उसे अन्तःपुरमें एकदम बंद कर रखना जैसे अन्याय है वैसे ही निष्फल भी है। मनुजीने यथार्थ ही कहा है
अरक्षिता गृहे रुद्धाः पुरुषैराप्तकारिभिः ।