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तीसरा अध्याय ] पारिवारिक नीतिसिद्ध कर्म । नहार अशुभ घटनाके होने पर उसे सहनेकी शक्ति नहीं रहती। इसी कारण विलासप्रियता निषिद्ध है, और जिससे यथार्थ आनन्दकी प्राप्ति हो उसीकी खोजमें तत्पर रहना कर्तव्य है। बिलानि, परिणाममें कुम्वदायिनी होने पर भी, पहले सुखकारिणी और हृदयग्राहिणी होती है, और उधर संयमकी शिक्षा, आवश्यक होने पर भी, पहले कुछ कष्ट देनेवाली होती है। किन्तु कुछ सोचकर देखनेसे, और बिलासी और संयमी दोनोंको सुख-दुःखका जमा-खर्च करके देखनेसे, इसमें संदेह नहीं कि मुखका भाग संयमीके ही हिस्से में अधिक पड़ेगा। कारण, यद्यपि पहले संयमीको कुछ अधिक कष्ट जान पड़ेगा, किन्तु अभ्यासके द्वारा क्रमशः उस कष्टका -हास हो आता है, और अपने कर्तव्यपालनमें संसार-संग्राममें जय पाने योग्य बलका संचय होनेसे जो आनन्द होता है वह दिन-दिन बढ़ता रहता है। उस मनुष्यका मन क्रमशः ऐसा सबल और दृढ़ हो उठता है कि वह फिर कोई अशुभ घटना होने पर विचलित नहीं होता। जो स्वामी स्त्रीके चरित्रको इस तरह संगठित कर सकता है, वही भाग्यशाली है और उसीकी स्त्री यथार्थम भाग्यवती है।
स्वामीके प्रति स्त्रीका प्रेम और भक्ति । ___ स्वामीके प्रति स्त्रीका अकृत्रिम प्रेम और अविचलित भक्ति रहनी चाहिए। यही स्त्रीका कर्तव्य है। स्त्रीसे अकृत्रिम प्रेम पानेकी अभिलाषा सभीको होती है। मगर बहुत लोगोंके मतमें स्त्रीपुरुपका सम्बन्ध जैसा बराबरीका सम्बन्ध है, उसे देखते जान पड़ता है कि एकके प्रति दूसरेकी भक्ति उनको संगत न जान पड़ेगी। किन्तु यह पति-भक्ति किसी अनुदार प्राच्य मतकी बात नहीं है। उदार पाश्चात्य कवि मिल्टनने मानवजननी इबके मुखसे स्वामीके प्रति ये बातें कहलाई हैं___“ईश्वर तुम्हारी विधि है, तुम मेरे हो, तुम्हारी आज्ञाके सिवा में और कुछ नहीं जानेंगी। यही मेरा श्रेष्ठ ज्ञान है, यही मेरा गौरव है।" (1)
(१) “God is thy law, thou mine; to know no more Is woman's happiest knowledge aud Ler praise.
Paradise Lost, BK, IV. ज्ञा०-१६