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ज्ञान और कर्म।
[द्वितीय भाग
वर और कन्याका चुनाव कौन करे ? विवाह-सम्बन्धकी उत्पत्तिके विषयकी पहली बातकी, अर्थात् विवाहकालके निर्णयकी, आलोचनामें जब देखा गया कि थोड़ी उम्रमें ब्याहकी चाल एकदम परित्यागके योग्य नहीं है, तब दूसरा प्रश्न यह उठता है कि पात्रपात्रीका निर्वाचन किसका कर्तव्य है और उस निर्वाचनमें क्या क्या देखना आवश्यक है ?
विवाहकी कमसे कम जो अवस्था ऊपर ठीक की गई है, उस अवस्थामें पान और पात्री परस्परका चुनाव खुद करने में समर्थ नहीं होते, लेकिन बिल्कुल ही अक्षम भी नहीं होते । अतएव उनके माता-पिता अथवा अन्य अभिभावकोंका प्रथम कर्तव्य उनकी अपनी अपनी समझके अनुसार योग्य पात्र या पानी पसंद करना है। और, उनका दूसरा कर्तव्य उस पसंद किये गये पात्र या पात्रीके दोष-गुण अपनी कन्या या पुत्रको जता देना, और उन्हें पसंद करनेका कारण समझा देना, तथा कन्या या पुत्रसे उसकी राय पूछना है। पुत्र या कन्याकी लज्जाशीलता इस प्रश्नका उत्तर देनेमें बाधक होगी। अगर कोई उत्तर देगा भी, तो इतना ही उत्तर मिलेगा कि उसे पिता-माताकी सत्-विवेचनाके ऊपर दृढविश्वास है. और वे जो अच्छा समझें वही करें। उस समय पुत्रको ब्याह करनेकी इच्छा अगर न होगी तो वह उसे प्रकट कर देगा, और वरके कुरूप या अधिक वयस्क होने पर कन्या इशारसे कुछ असन्तोष जनावेगी। (बस, इतना ही पात्र या पात्री कर सकते हैं-उनसे इत. ना ही उत्तर पानेकी आशा की जा सकती है।) चाहे जो हो, पुत्र-कन्याको समझाकर, उनसे अपने मनका यथार्थ भाव प्रकट करनेके लिए कहना, और उस भावको खुद समझ लेना, तथा उस पर दृष्टि रखकर काम करना, पिता
और माताका कर्तव्य है। ___ पात्र-पात्रीके निर्वाचनमें क्या क्या दोष-गुण देखने होंगे, इस प्रश्नका उत्तर देना सहज नहीं है। मनुष्यको पहचानना बड़ा कठिन है, खासकर जिस समयतक उसके शरीर और मनका पूर्णरूपसे विकास न हुआ हो। तथापि देहतत्त्व और मनस्तत्त्वके ज्ञाता पण्डितोंने जो कुछ नियम निश्चित कर दिये हैं, उन पर दृष्टि रखकर विज्ञ पिता-माता, यत्न करें तो, अनेक दोषों और गुणोंका निरूपण कर सकते हैं। पात्र या पात्रीका शरीर सुगठित और सुस्थ है कि नहीं, उसके पितृकुल और मातृकुलमें किसी पूर्वपुरुषके कोई असाध्य