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तीसरा अध्याय ] पारिवारिक नीतिसिद्ध कर्म ।
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अनुकूल भी अनेक बातें हैं। और, बाल्यविवाहमें जैसे दोष हैं, वैसे ही कई गुण भी हैं। उधर यौवन-विवाह या प्रौढ़-विवाह, जैसे गुण हैं वैसे ही कुछ दोष भी हैं। जब इस तरह दोनों ओर उभय-संकट है, तो फिर कौन मार्ग अवलम्बनीय है ? असल बात यह है कि हमारे कर्मक्षेत्रके अन्यान्य संकटस्थलोंकी तरह विवाहकालका निर्णय भी एक कठिन संकट-स्थल है । एक ओरके अधिक सुफलकी प्रत्याशा करनेमें अन्य ओरके सुफलकी आशा कुछ छोड़नी पड़ती है, और उधरके सुफलका भाग लेना पड़ता है। इस तरहके स्थलमें ऐसा कोई सिद्धान्त नहीं है जो सर्ववादिसंमत हो, और जिसके द्वारा सब तरह सुफल पाया जा सके। उद्देश्य और अवस्थाके भेदसे विभिन्न सिद्धान्तों पर पहुंचना होगा। अगर हमें सबल रण-कुशल सैनिक, या सुदूर समुद्रयात्रामें न डरनेवाले नाविक, अथवा साहसी उद्यमशील बनिये (सौदागर) पैदा करने हों, तो थोड़ी अवस्थाके विवाहकी प्रथा परित्याज्य है। किन्तु यदि शिष्ट, शान्त, धर्मपरायण, संयत प्रवृत्तिवाले गृहस्थ पैदा करना हो, तो ऊपर लिखे अनुसार थोड़ी अवस्थामें पुत्र-कन्याका ब्याह कर देना ही अच्छा है । मगर हाँ, आर्थिक अवस्था कुछ अनुकूल न होने पर, जबतक स्त्री-पुत्र-कन्याके पालनका सुभीता न हो, तबतक व्याह करना उचित नहीं है। और, जहाँ विद्योपार्जन आदि अन्य उच्चतर उद्देश्यमें लड़केका मन एकान्त निविष्ट है, और उसके लक्ष्यभ्रष्ट होकर कुमार्गमें जानेकी संभावना नहीं है, वहाँ पर भी विलम्बमें उसका व्याह किया जाय तो अच्छा । विवाहकालके बारेमें, संक्षेपमें, यही स्थूल सिद्धान्त है। इस सम्बन्धमें किसी बँधे हुए नियमकी स्थापना, अथवा इस बातको लेकर समाज-संस्कारक या संस्कार-विरोधी इन दोनों दलोंका अनर्थक विवाद, वांछनीय नहीं है।
बाल्यविवाहमें बालवैधव्यकी आशंका है, और अगर विधवाविवाह निषिद्ध हो तो यह आशंका अतिगुरुतर विषय है । यह बाल्यविवाहके विरुद्ध एक कठिन आपत्ति है, और इसके खण्डनका उपाय भी नहीं देखा जाता। इसके सम्बन्धमें केवल इतना ही कहा जा सकता है कि संसार में कोई भी विषय निरन्तर शुभकर नहीं है, सभीमें शुभ और अशुभ दोनों मिले हैं। बस, जिसमें शुभ या मंगलका भाग अपेक्षाकृत अधिक है वही ग्रहण करने योग्य है।