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तीसरा अध्याय ] पारिवारिक नीतिसिद्ध कर्म। २३५ उत्कट रोग था कि नहीं, खुद पात्र-पात्रीका और उसके पिता-माताका स्वभाव कैसा है, और उनके मातृकुल और पितृकुलमें किसी गुरुतर दुष्कर्मसे कलुषित कोई आदमी था कि नहीं, इन सब बातोंका विशेष रूपसे पता लगाना पात्रपात्रीके पिता-माता या अन्य अभिभावकका कर्तव्य है (१)। इन बातोंकी खोज करनेसे दोप-गुणका बहुत कुछ परिचय मिल सकता है। इस प्रकारकी जाँचमें अगर कोई गुरुतर दोष मालूम हो, तो उस दोपसे सम्बन्ध रखनेवाले पान-पात्रीको छोड़ देना चाहिए । खेदकी बात तो यह है कि आजकल अधिकांश लोग इन सब गुरुतर विषयोंपर दृष्टि न रखकर अपेक्षाकृत लघुतर विषयोंके लिए ही व्यस्त देखे जाते हैं। कहावतके तौर पर एक साधारण श्लोक सुना जाता है
कन्या वरयते रूपं माता वित्तं पिता श्रुतम् ।
बान्धवाः कुलमिच्छन्ति मिष्टान्नमितरे जनाः ।। अर्थात् कन्या वरका रूप चाहती है, कन्याकी माता वरका धन और कन्याका पिता वरकी विद्या देखता है । बन्धु-बान्धव कुल चाहते हैं और अन्य बराती वगैरह लोग मिठाई खाने पर नजर डालते हैं।
रूप अवश्य अग्राह्य करनेकी वस्तु नहीं है, किन्तु वह यदि यथार्थ रूप हो । कन्या ही क्यों, कन्याके मा-बाप कुटुम्बी और अन्य सभी वरका रूप देखकर सन्तुष्ट होते हैं । वरके पक्षमें भी यही बात बहुत कुछ घटित होती है। किन्तु रूपका अर्थ केवल गोरा चमड़ा ही नहीं है। एकवार एक भले आदमीके मुखसे मैंने सुना था, उनकी सहधर्मिणीका मत है कि उनकी भावी पुत्रवधूके अगर एक आँख न हो तो भी किसी तरह चल सकता है, लेकिन उसका रंग अवश्य ही गोरा होना चाहिए ! सहसा यह बात सुनकर विस्मित होना पड़ता है। किन्तु जब कुछ सोचकर देखा जाता है कि बहु दर्शी मनुष्यतत्त्व और जातितत्त्वके ज्ञाता बड़े बड़े पाश्चात्य पण्डितोंके भी वर्ण-ज्ञानके अनुसार वर्ण-भेद ही मनुष्यके बल, बुद्धि, नीति, प्रकृतिका प्रधान परिचयदाता है, तो अल्पदर्शिनी अन्तःपुरवासिन्दी हिन्दू-रमणीकी यह बात उतने आश्चर्यकी नहीं जान पड़ती। चाहे जो हो, अंगसौष्ठव, अच्छे स्वास्थ्यके
(१) मनुसंहिता अ० ३, श्लो० ६-११ देखो ।