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भूमिका।
तीसरे, संस्कृत भाषाके साथ हिन्दीभाषाका जैसा घनिष्ठ सम्बन्ध है उसे देखते हुए संस्कृत भाषामें किसी शब्दका जिस अर्थमें व्यवहार होता है उससे विभिन्न अर्थमें हिन्दीमें उस शब्दका व्यवहार होना युक्तिसिद्ध नहीं है, और अगर ऐसा हुआ तो उससे बहुत कुछ असुविधा होती है। एक उदाहरणसे यह बात अधिक स्पष्ट हो जायगी । 'विज्ञान' शब्द संस्कृत भाषामें 'विशेष ज्ञान' का बोध कराता है; किन्तु हिन्दीमें इस शब्दका प्रयोग विशेष ज्ञान देनेवाले शास्त्रके अर्थमें किया जाता है । इसका फल यह हुआ है कि ' मनोविज्ञान' शब्द हिंदी भाषामें मनस्तत्वसम्बन्धी शास्त्रका बोध कराता है, और उसी नियमके अनुसार ' आत्मविज्ञान' कहनेसे आत्मतत्त्वसे सम्बंध रखनेवाले शास्त्रका बोध होता है। किन्तु संस्कृत भाषामें 'आत्मविज्ञान' शब्द अन्य अर्थका बोधक है। (वेदान्तदर्शनमें शंकरभाष्यका प्रारंभ देखो।) मगर हाँ, जहाँ कोई संस्कृत शब्द हिन्दीमें संस्कृत भाषाके अर्थसे जुदे अर्थमें व्यवहार होता आ रहा है, वहाँ वह शब्द छोड़ देना या उसका संस्कृतके अर्थमें व्यवहार करना सुविधाजनक नहीं।