________________
भूमिका ।
२३.
mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm समझमें आना, ये दोनों भाषाके परस्परविरुद्ध गुण हैं। कारण, अनायास बोधगम्य बनानेके लिए आलोचनाका विषय विस्तारके साथ कहा जाता है और उसे पढ़ने में देर लगती है। किन्तु शीघ्र बोधगम्य बनानेके लिए आलोचनाका विषय संक्षेपमें लिखना पड़ता है और वह सहजमें समझा नहीं जा सकता। इन दोनों गुणोंका सामंजस्य करने और अनेकार्थबोधक शब्दों के अर्थके सम्बन्धमें संशय मिटानेके लिए दर्शन-विज्ञान आदि विषयोंके ग्रंथों में परिभाषाओंका प्रयोजन होता है । आलोच्य विषयका बोध करानेवाले कुछ शब्द, ग्रंथमें जिनका वारंवार प्रयोग करनेकी आवश्यकता होती है, उनका किस अर्थमें व्यवहार होगा, यह एक बार कह देनेपर, फिर आगे चलकर बिना किसी व्याख्याके जितनी बार जी चाहे उनका प्रयोग किया जा सकता है। ऐसा करनेसे इस प्रणालीके द्वारा ग्रंथ संक्षिप्त होनेके साथ ही सहजमें समझनेके योग्य होता है और अर्थके संबंधमें भी कुछ संशय नहीं रहता।
परिभाषाओंके प्रयोगके सम्बन्धमें कई बातें याद रखनेकी जरूरत है।
एक तो परिभाषाओंका प्रयोग जितना कम हो उतना ही अच्छा। क्योंकि यद्यपि पारिभाषिक शब्दोंके अर्थके सम्बन्धमें कोई संशय नहीं रहता और उसके प्रयोगसे ग्रंथ संक्षिप्त होता है, तो भी जब शब्दोंके पारिभाषिक अर्थ
और साधारण अर्थमें कुछ इतर विशेष रहता है और वह इतर विशेष याद रखना परिश्रमसाध्य होता है, तब अधिक परिभाषापूर्ण ग्रंथ पढ़ना अवश्य ही कष्टदायक हो उठता है।
दूसरे, परिभाषायें ऐसी होनी चाहिए कि किसी शब्दका पारिभाषिक अर्थ उसके साधारण अर्थसे एकदम जुदा न हो । क्योंकि यद्यपि पारिभाषिक अर्थ एकबार बता देनेसे उसके संबंधमें संशय नहीं रह सकता, तो भी जब हर एक शब्द पढ़ने या उच्चारण करनेसे उसका साधारण अर्थ ही पहले मनमें आना संभव है तब वह अर्थ अगर उस शब्दके पारिभाषिक अर्थसे एकदम जुदा होता है तो पहले मनमें आनेवाले अर्थसे दूसरा अर्थ सहज ही खयालमें नहीं आता; बल्कि पहले खयालमें आनेवाले अर्थको एकदम हटाकर तब पारिभाषिक अर्थ मनमें स्थान पाता है। इसमें समय लगता है, परिश्रम पड़ता है और यथार्थ अर्थका बोध सुखसाध्य नहीं होता।