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________________ २२ भूमिका। यह एक अनिवार्य असुविधा है । लेकिन जो लोग किसी भी शास्त्रको भ्रमरहित नहीं समझते, उनके आगे शास्त्रमूलक आलोचना करने में भी उसी तरहकी असुविधा है। और जब हमें इस दूसरी श्रेणीके लोग ही इस समय संख्यामें अधिक देख पड़ते हैं तब युक्तिमूलक आलोचना ही अधिकांश लोगोंके लिए उपयोगी जान पड़ती है। खासकर युक्तिमूलक आलोचनाके दोष गुणोंका विचार सभी लोग बिना किसी संकोचके कर सकते हैं, किन्तु शास्त्रमूलक आलोचनाके दोष-गुणोंका विचार उस तरह नहीं किया जा सकता; यह भी युक्तिमूलक आलोचनाके पक्षमें एक अनुकूल तर्क है। युक्तिमूलक आलोचनामें अनेक स्थानोंपर उपमा-उदाहरण आदिके द्वारा आलोचनीय विषयकी व्याख्या की जाती है। किन्तु उपमा उदाहरण आदिका संग्रह अक्सर बहिर्जगत्के ही विषयोंसे किया जाता है। इसी कारण अन्तर्जगत्के विषयों में उनका प्रयोग उचित है या नहीं, यह संदेह अवश्य हो सकता है। ऐसे स्थलोंपर उपमा-उदाहरण आदिका प्रयोग अत्यन्त सावधानीके साथ होना चाहिए। आलोचनाकी प्रणालीके संबंधमें एक बात और कहनी है । इस ग्रंथमें जो कुछ विचारा जायगा उसकी आलोचना यथाशक्ति और यथासंभव संक्षेपमें ही होगी। यद्यपि किसी किसी जगह कोई कोई बात कुछ विस्तारके साथ कहनेसे अधिक स्पष्ट समझी जा सकती है, किन्तु लोगोंके पास समय इतना थोड़ा है कि अधिक बातें पढ़ने यो सुननेका अवकाश बहुतोंको नहीं मिलता। इसके सिवा अनेक स्थलोंपर वाणीका आडम्बर कोरी विडम्बना ही जान पड़ता है। बल्कि थोड़े शब्दोंमें जो बात प्रकट की जाती है उसे पढ़नेके लिए लोगोंकी प्रवृत्ति विशेष हो सकती है, और उसमें वाक्य-जालकी जटिलता और शब्दजनित भ्रमकी संभावना भी थोड़ी होती है। __ आलोचनाकी भाषाके संबंधमें भी दो-एक बातें कहकर यह भूमिका समाप्त की जायगी। भाषाका उद्देश्य है, वक्तव्य विषयको विशद रूपसे व्यक्त करना। अतएव ग्रंथ उस भाषामें लिखा जाना चाहिए, जिसके द्वारा आलोचनाका विषय जल्दी और सहज ही पाठकोंकी समझमें आजाय । ग्रंथकी भाषाके संबन्धमें यही साधारण और स्थूल नियम है। लेकिन अनेक स्थलों में सहजमें अर्थात् अनायास ही समझमें आजाना, और शीघ्र अर्थात् थोड़े समयमें
SR No.010191
Book TitleGyan aur Karm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupnarayan Pandey
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1921
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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