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कर्म, (६) धर्मनीतिसे सिद्ध कर्म, (७) कर्मका उद्देश्य, इन सात विषयोंकी थोड़ी सी आलोचना की जायगी।
अब आलोचना-प्रणालीके बारेमें दो-एक बातें कहना जरूरी है।
इस ग्रन्थके सब विषयोंकी आलोचना तीन ढंगसे हो सकती है-युक्तिके द्वारा, शास्त्रके द्वारा और युक्ति और शास्त्र दोनोंका सहारा लेकर । इनमेंसे युक्तिमूलक आलोचना ही इस जगह विशेष उपयोगी है। क्योंकि, कोई बात स्वीकार करनेके लिए लोग पहले युक्तिके द्वारा उसकी सचाईकी जाँच करनेकी चेष्टा करते हैं, और जबतक वह बात युक्ति-सिद्ध नहीं जान पड़ती तबतक उसके सम्बन्धमें संदेह बना ही रहता है। दूसरे, शास्त्र के ऊपर निर्भर करनेमें भी, जब शास्त्र अनेक और तरह तरहके हैं, और अनेक विषयों में भिन्न भिन्न शास्त्रोंके और जुदे जुदे मुनियोंके अनेक प्रकारके मत हैं, तब किस शास्त्रका और किस मुनिका मत माननीय है, यह ठीक करनेका एक मात्र उपाय युक्ति ही है । इसके सिवा शास्त्रमूलक आलोचनामें भी युक्तिकी सहायता लेने और विरुद्ध युक्तियोंके खण्डनकी जरूरत है । वेदान्त दर्शनके दूसरे अध्यायके दूसरे पादके प्रथम सूत्रका 'शंकर-भाष्य' ही इस बातका दृष्टान्त है। तीसरे, यद्यपि किस शास्त्रकारका सहारा लेना चाहिए, यह युक्तिके द्वारा ठीक करके, उसी शास्त्रके अनुसार आलोचना की जा सकती है, और उस आलोचनाको युक्तिमूलक और शास्त्रमूलक दोनों कह सकते हैं, मगर किस जगह यथार्थमें किस शास्त्रका सहारा लेना चाहिए, इस बारेमें इतना अधिक मतभेद है कि इस ग्रंथमें युक्तिमूलक आलोचनाका होना ही ठीक जान पड़ता है । लेकिन हाँ, खास खास स्थानोंपर युक्तिकी पोषकतामें शास्त्र या बुद्धिमानोंके मतके ऊपर भी निर्भर किया जायगा । उदाहरणके तौर पर जैसे, जिस जगह ' कौनसी बात परिमार्जित बुद्धिको कैसी प्रतीत हुई है ' यह आलोचनाका विषय है, वहाँ पर शास्त्र या बुद्धिमानों का मत अवश्य निर्भरयोग्य है।
जो लोग किसी शास्त्रको ईश्वरकी, या ईश्वरसे आदेश पाये हुए किसी खास व्यक्तिकी उक्ति, और इसीलिए अभ्रान्त, मानते हैं, वे उस शास्त्रको युक्तिकी अपेक्षा अवश्य ही बड़ा बतलावेंगे, और कोई युक्ति अगर उस शास्त्र के साथ मेल नहीं खायगी तो उसे भ्रान्त कहेंगे । युक्तिमूलक आलोचनामें अवश्य ही