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________________ २० भूमिका। का लक्ष्य है। ऐसे ही जिस स्थल पर जो कर्म करना उचित है वह न करके हम अक्सर वर्तमान क्षणिक दु.खसे बचने और क्षणिक सुख पानेके लिए भावी स्थायी मंगलकर कार्य त्यागकर अमंगलकर कार्यमें प्रवृत्त होते हैं। इस अन्यायप्रवृत्तिका दमन करक सुनीतिका सहारा लेनेका अभ्यास ही कर्मका लक्ष्य है । इस जगह पर यह भी कह देना उचित है कि ज्ञान और कर्म दोनोंका अंतिम लक्ष्य परमार्थकी प्राप्ति है। ज्ञान और कर्मके सम्बन्धमें यत्किञ्चित् आलोचना करना ही इस छोटीसी पुस्तकका उद्देश्य है । इस आलोचनाके विषय क्या क्या हैं, सो इस जगह पर बता देना कर्तव्य है। यदि ज्ञानकी संपूर्ण आलोचना करनी हो, तब तो विश्वके सब विषयोंकी और मनुष्यप्रणीत सब शाखोंकी आलोचना करनेकी आवश्यकता होगी; परन्तु उस बड़े और दुरूह कार्यमें हाथ डालनेकी न मेरी इच्छा है, और न उतनी मुझमें शक्ति ही है। हाँ, ज्ञानके सम्बन्धमें थोड़ीसी आलोचना की जायगी और इसके लिये ज्ञाता, ज्ञेय, अन्तर्जगत्, बहिर्जगत्, ज्ञानकी सीमा, ज्ञानलाभका उपाय और ज्ञानलाभका उद्देश्य, इन कई एक विषयोंका कुछ कुछ वर्णन आवश्यक होगा। इसी लिए इस ग्रंथके प्रथम भागमें अलग अलग अध्यायोंमें (.) ज्ञाता, (२) ज्ञेय, (३) अन्तर्जगत्, (४) बहिर्जगत्, (५) ज्ञानकी सीमा, (६) ज्ञानलाभका उपाय, (७) ज्ञानलाभका उद्देश्य, इन सात विषयोंकी संक्षिप्त आलोचना की जायगी। ___ जन्मसे मृत्यु तक अवस्था-भेद और स्थल-भेदके अनुसार मनुष्यके नीतिसिद्ध कर्म असंख्य प्रकारके हैं। इस ग्रंथमें उन सबकी आलोचना असंभव और असाध्य है। मगर कर्मके संबंधमें आलोचना करते समय, कर्ताकी स्वतन्त्रता है कि नहीं-कार्य कारण सम्बन्ध कैसा है, कर्तव्यताके लक्षण, पारिवारिक नीतिसे सिद्ध कर्म, सामाजिक नीतिसे सिद्ध कर्म, राजनीतिसे सिद्ध कर्म, धर्मनीतिसे सिद्ध कर्म और कर्मका उद्देश्य, इन कई एक विषयोंका कुछ कुछ वर्णन आवश्यक है। इसी लिए इस ग्रंथके द्वितीय भागमें अलग अलग अध्यायोंमें (1) कर्ताकी स्वतन्त्रता है कि नहीं-कार्यकारण सम्बन्ध कैसा है, (२) कर्तव्यताके लक्षण, (३) पारिवारिक नीतिसे सिद्ध कर्म, ( ४ ) सामाजिक नीतिसे सिद्ध कर्म, (५) राजनीतिसे सिद्ध
SR No.010191
Book TitleGyan aur Karm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupnarayan Pandey
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1921
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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