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भूमिका |
5.
सब विषयोंका निगूढ़ तत्त्व जानने की इच्छा, और अपनी अवस्थाकी उन्नति करनेकी चेष्टा, मनुष्यका स्वाभाविक धर्म है । हम बाहर जो विचित्र जगत् देख रहे हैं और भीतर जिन सब अनिर्वचनीय भावोंका अनुभव करते हैं, उनके द्वारा वह तत्त्व जाननेकी इच्छा निरन्तर उत्तेजित होती है । और हमारे अभाव और अपूर्णतायें इतनी अधिक हैं कि उस उन्नतिकी चेष्टाको हम क्षणभर भी छोड़कर नहीं रह सकते । अपने अपने मनसे पूछने और परस्परके कार्योंपर दृष्टि डालनेसे ही इस बातके अनेक प्रमाण पाये जाते हैं ।
तत्त्व जानने की इच्छा हमें ज्ञानके उपार्जनकी ओर प्रेरित करती है और उन्नतिकी चेष्टा हमें कर्म करनेमें लगाती है । ज्ञानका उपार्जन और कर्मका अनुष्ठान ही मनुष्य जीवनका प्रधान कार्य है ।
ज्ञान और कर्म सम्बन्धहीन नहीं हैं, दोनों परस्पर एक दूसरेकी अपेक्षा रखते हैं । अधिकांश स्थलोंमें देखा जाता है कि ज्ञानकी प्राप्तिके लिए अनेक प्रकारके कर्मों का प्रयोजन है, और कर्म करनेके लिए अनेक विषयोंके ज्ञानकी आवश्यकता है । " ज्ञानकी बढ़ती के साथ साथ कर्मोंका क्षय होता है, " यह बात इस तरह सत्य है कि ज्ञानकी बढ़ती होनेपर अनेक कर्म बेकार जान पड़ते हैं, और अनेक कर्म सहज ही संपन्न हो जाते हैं ।
ज्ञानका लक्ष्य तत्त्व या सत्य है । कर्मका लक्ष्य न्याय या नीति है । जिस स्थल पर जिसकी उपलब्धि होना उचित है वह न होकर हमें अक्सर रस्सी में साँपका भ्रम होता है । उस भ्रमको दूर करके सत्यकी उपलब्धि ही ज्ञान