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ज्ञान और कर्म।
प्रथम भाग-ज्ञान।
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उपक्रमणिका । ज्ञात होनेकी अवस्था और ज्ञात होनेकी शक्ति, इन दोनों अर्थों में ज्ञान शब्दका व्यवहार होता है । जैसे, मैं जानता हूँ कि मैं चिन्तित हूँ, इस जगह इस जाननेकी अवस्थाको ज्ञान कहा जाता है, और जिस शक्तिके द्वारा हम वह जानते हैं वह शक्ति भी ज्ञान कही जाती है। ज्ञान शव्दके ये दोनों अर्थ जुदे होने पर भी परस्पर सम्बन्ध रखते हैं। हमारी जाननेकी अवस्था हमारी जाननेकी शक्तिकी क्रियाका फल मात्र है। जाननेकी शक्तिको बुद्धि भी कहते हैं।
ज्ञान क्या है, यह बतलाने में ज्ञाता और ज्ञेय इन दोनोंका प्रसंग आता है। कारण, इन दोनोंका मिलन ही ज्ञान है।
इस बातका और ज्ञानसे संबंध रखनेवाली और और अनेक बातोंका प्रमाण केवल अन्तर्दृष्टिके द्वारा और अन्तरात्मासे जिज्ञासाके द्वारा पाया जाता है।
हम अन्तर्दृष्टिके द्वारा जानते हैं कि हमारे कानोंके छेदमें एक शब्द ध्वनित हो रहा है। इस ज्ञानका ज्ञाता मैं हूँ,ज्ञेय वही कर्ण-कुहरमें ध्वनित होनेवाला शब्द है, और मैं और उस ध्वनित शब्दका मिलन ही उस शब्दका ज्ञान है।